Monday, March 26, 2018

घबराइए नहीं यहाँ है मधुमेह का सही इलाज़

भारत मे शायद ही कोई विरले व्यक्ति होंगे जिनके जानने वालों को ये रोग न हुआ हो, मधुमेह आज महामारी की तरह पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले रहा है, पूरा विश्व की त्रासदी से जूझ रहा है तो चलिए आज हम इस काल से सबसे जिद्दी सामान्यतः जीवन शैली से उत्पन्न रोग मधुमेह की बाद करते है आधुनिक चिकित्सा में इसे  हम डायबिटीज मेलेटस (DM), के नाम से जानते है।

वेसे मधुमेह रोगों को एक रोग न बोल कर रोगों का समूह कहना उचित होगा क्यों कि ये स्वभाव से ही सिंड्रोम है ।
यदि इसे परिभाषित करना हो तो बोला जाए कि metabolism(चयापचय) संबंधी बीमारियों का एक समूह है जिसमें लंबे समय तक उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) का स्तर होता है।

उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) के लक्षणों में अक्सर

पेशाब आना( polyurea) होता है, प्यास की बढ़ोतरी (polydipsia)होती है,
भूख में वृद्धि होती है।

यदि अनुपचारित  छोड़ दिया जाता है यानी कोई चिकित्सा न लिया जाए तो , मधुमेह कई जटिलताओं(compliance) का कारण बन सकता है।  तीव्र जटिलताओं(acute compliance) में
मधुमेह केटोएसिडोसिस (diabetic ketoacidosis),

नॉनकेटोटिक हाइपरोस्मोलर कोमा (hyperosmolar hyperglycemic state), या मौत शामिल हो सकती है।गंभीर दीर्घकालिक जटिलताओं (chronic compliance)में हृदय रोग, स्ट्रोक, क्रोनिक किडनी की विफलता, पैर अल्सर और आंखों को नुकसान शामिल है।

तो चलिए अब बात करते है इसके कारण की

मधुमेह के कारण है या तो अग्न्याशय ( pancreas) पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता या शरीर की कोशिकायें इंसुलिन को ठीक से जवाब नहीं करती।

इंसुलिन के विषय मे आपको बता दु की  ये एक इस केमिकल या रसायनीक तत्व है जो हमारे पैंक्रियाज से निकल कर रक्त में आ जाता है जो कि ग्लूकोज को कोशिका के भीतर ले जाने से सहयोग करता है यानी यदि इंसुलिन न रह तो रक्त में ग्लूकोज रहेगा परन्तु वो कोशिकाओं में नही जा पायेगा ओर जब कोशिकाओ में नही जाएगा तो उसका पाचन (मेटाबोलिज्म) नही हो पायेगा ओर बॉडी को एनर्जी नही मिल पाएगी ।

यानी डायबिटीज़ में ख़ून में ग्लूकोज़ की मात्रा अमूमन प्लाज़्मा में या सीरम में नापी जाती है। प्लाज़्मा और सीरम को समझना ज़रूरी है पहले ? ख़ून की सारी कोशिकाओं को निकालने पर जो तरल हिस्सा बचा रह गया , वह प्लाज़्मा हुआ। और खून के जम जाने के बाद जो तरल हिस्सा शेष रहा ,  सीरम कहलाया। सीरम में ख़ून जमाने वाले तमाम प्रोटीन कोशिकाओं से बने थक्के में चले जाते हैं , जबकि प्लाज़्मा में केवल कोशिकाओं को हटाया जाता है। रक्त में मिलने वाली कोई भी प्रोटीन प्लाज़्मा में अलग नहीं होती।

यह जानकारी आपको इसलिए दी गयी कि आप जानें कि आपका ग्लूकोज़ 'किसमें' नापा गया है।
  • प्लाज़्मा में ? 
  • सीरम में ? 
  • अथवा सम्पूर्ण रक्त में ? 


यदि आप ग्लूकोमीटर का प्रयोग करते हों , तो उसपर लिखे निर्देश पढ़िए कि वह किस तरह से ग्लूकोज़ नाप रहा है। आमतौर पर ग्लूकोमीटर सम्पूर्ण रक्त में ग्लूकोज़-रीडिंग बताते हैं। पैथोलॉजी-लैब में लिया गया सैम्पल प्लाज़्मा में ग्लूकोज़ नापता है। इन दोनों के बीच 10-15 %  का अन्तर हो सकता है। प्लाज़्मा ग्लूकोज़ सम्पूर्ण ग्लूकोज़ से थोड़ा अधिक आता है। यानी पैथोलॉजी में अगर नापने वह 140 आया , तो सम्भवतः घर के सम्पूर्ण रक्तवाले ग्लूकोमीटर से नापने पर 120 के लगभग आये।

फिर ग्लूकोज़ की जाँचें खाली पेट और नाश्ते के दो घण्टे के बाद की जाती हैं।

  • खाली पेट का आशय क्या समझा जाए ? 
  • नाश्ता किसे कहा जाए ? 


एक बिस्कुट और सन्तरे वाला भी नाश्ता होता है और चार पराठों के साथ सब्ज़ीवाला भी। ऐसे में कोई तो मानक हमें तय करने होंगे न !

खाली पेट या निराहार का अर्थ यह होता है कि जाँच से आठ घण्टे पहले तक आपने कुछ न खाया हो। यही कारण है कि इस जाँच को सुबह कराया जाता है। पोस्ट-प्रैंडियल अथवा नाश्ते के उपरान्त करायी जाँच में दो घण्टे बाद रक्त में ग्लूकोज़ नापा जाता है। इसके पीछे भी चिकित्सा-विज्ञान का अपना सिद्धान्त है।

जैसे ही आपकी आँतों से भोजन अवशोषित होकर रक्त में पहुँचता है , पेट में मौजूद आपका अग्न्याशय इन्सुलिन नामक हॉर्मोन ख़ून में छोड़ने लगता है। इन्सुलिन का काम आपके  ख़ून से ग्लूकोज़ को शरीर के ऊतकों की कोशिकाओं के भीतर पहुँचाना है। दो घण्टों के बाद एक सामान्य आदमी में इन्सुलिन के सामान्य उत्पादन के कारण ग्लूकोज़ का स्तर सामान्य हो जाता है। लेकिन मधुमेह के रोगी में या तो इन्सुलिन बनता कम है या फिर ऊतक उसका कहा मानकर ग्लूकोज़ को भीतर नहीं लेते। इस कारण भोजन के दो घण्टे के बाद भी ख़ून में ग्लूकोज़ बढ़ा रहता है।

ग्लूकोज़ की एक और विशेषता है : यह लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर स्थित हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है। इस प्रक्रिया को ग्लाइकेशन या ग्लाइकोसाइलेशन कहा जाता है।ग्लूकोज़ का हीमोग्लोबिनी आलिंगन जो एक बार हो जाए , तो फिर हटता नहीं। वह लाल रक्त कोशिका के पूरे जीवन-काल तक यों ही बना रहता है। यथावत्। यह अँगरेज़ी की 'टिल डेथ डू अस पार्ट' वाली मीठी किन्तु ज़हरीली मुहब्बत है।.

प्रश्न जो हर मधुमेह-रोगी के मन में उठता है कि HbA1c अगर इतना महत्त्वपूर्ण है ,

  • तो इसे कितना रखा जाए ? 
  • भोजन-व्यायाम-दवाओं से इसकी नियन्त्रित सीमा क्या तय की जाए ? 


इस बाबत लगभग विश्व के सभी मधुमेह-विशेषज्ञ मानते हैं कि साढ़े छह - सात तक इसे सामान्यतः होना चाहिए। इससे अधिक संख्या अनियन्त्रित डायबिटीज़ की तरफ़ इंगित करती है।

एक बात और। बहुत ज़्यादा कसा हुआ ग्लूकोज़-नियन्त्रण , जिससे HbA1c साढ़े छह से भी नीचे चला जाए , भी उचित नहीं है और हानिकारक है। ऐसे में हर रोगी को अपने शरीर को समझते हुए डॉक्टर की सलाह से उसे साढ़े छह - सात के बीच रखने का प्रयास करना चाहिए।

वृक्क ( गुर्दा ) व यकृत-रोगियों में , सर्जरी के उपरान्त , रक्तस्राव व रक्त चढ़ाने के उपरान्त तथा कुछ दवाओं के कारण HbA1c का मधुमेह-मापन समस्या पैदा कर सकता है। ऐसे में अपने डॉक्टर से मिलकर सही परामर्श लेना चाहिए , ताकि मधुमेह नियन्त्रित रखा जा सके।

याद रखिए : 
अपना डॉक्टर बनना बुरी बात है। विशेषज्ञ जो आपको परामर्श देता है , वह न्यूनतम आठ -नौ साल पढ़कर वहाँ तक पहुँचा है। मधुमेह के मापन और नियन्त्रण के लिए इस्तेमाल होने वाली जाँचें और दवाएँ क्षेत्रीय नहीं हैं , इनका अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव है। यही जाँचें अमेरिका-यूरोप-आस्ट्रेलिया-अफ़्रीका हर स्थान पर इस्तेमाल होती हैं। ऐसे में विज्ञान पर सन्देह व्यक्त करना न सिर्फ़ उन्नत उपचार से वंचित रखता है , बल्कि आपको हँसी और दया का पात्र भी बनाता है

अब बात करते है मधुमेह के तीन मुख्य प्रकारो की




टाइप 1
डीएम पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन करने के लिए अग्न्याशय की विफलता का परिणाम है। इस रूप को पहले "इंसुलिन-आश्रित मधुमेह मेलाईटस" (आईडीडीएम) या "किशोर मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसका कारण अज्ञात है

आयुर्वेद इसे सहज यानी अनुवांशिक मानता है



टाइप 2
DM इंसुलिन प्रतिरोध से शुरू होता है, एक हालत जिसमें कोशिका इंसुलिन को ठीक से जवाब देने में विफल होती है। जैसे-जैसे रोग की प्रगति होती है, इंसुलिन की कमी भी विकसित हो सकती है। इस फॉर्म को पहले "गैर इंसुलिन-आश्रित मधुमेह(नॉन इन्सुलिन डिपेंडेंट DM " (एनआईडीडीएम) या "वयस्क-शुरुआत मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसका सबसे आम कारण अत्यधिक शरीर का  वजन होना और पर्याप्त व्यायाम न करना है।
ये प्रायः आलस्य पूर्ण जीवन जीने वालो को होता है ,

टाइप 3

गर्भावधि मधुमेह इसका तीसरा मुख्य रूप है और तब होता है जब मधुमेह के पिछले इतिहास के बिना गर्भवती महिलाओं को उच्च रक्त शर्करा के स्तर का विकास होता है।

आयुर्वेद ओर मधुमेह

आयुर्वेद में मधुमेह के कारण बताते हुए कहा गया है कि

  • आलस्यपूर्ण जीवन जीना
  • दिन में सोना 
  • दही आदि गुरु द्रव्य सेवन
  • जल में रहने वाले या उसके आसपास रहने वाले जीव का मांस खाने से 
  • मातापिता के वीर्य दोष 


आयुर्वेद चिकित्सा के मूल सिद्धांतों म् पहला सिद्धान्त है 
निदान परिवर्जन
  • अर्थात् रोग के कारण को दूर करे, 
  • आलस्य पूर्ण जीवन का त्याग करें,
  • दिन में सोना जलीय मांस आदि को खाना आदि त्याग दे, 
  • अपने आहार विहार दिनचर्या ओर ऋतुचर्या को संयमित रखे,
  • भोजन में तिक्त एवम कषाय द्रव्यों का सेवन जरूर करे


फिर चिकित्सा के लिए आयुर्वेद में जो दवाये है उनका पहला काम इंसुलिन पर न होकर उसके मूल यानी जो बीट सेल इंसुलिन बनाते है उनपर होता है और उसको ठीक करता है उनका पोषण और rejuvenation करता है और इंसुलिन का बनाने योग्य क्षमता प्रदान करता है, दूसरी चीज ये की जो मधुमेह से अन्य अंग प्रभावित होते है उनको भी बचाता है और स्वस्थ रखता है, उदाहरण के लिए आखो की रोशनी जो अक्सर खत्म हो जाता है मधुमेह में आयुर्वेद की चिकित्सा से ये सभी सामान्य नही हो पाती है और कुछ लंबे समय तक सेवन से रोगी पूर्ण स्वस्थ हो जाता है ।




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