Monday, May 14, 2018

पुरुष, पौरुष और पुरुषत्व के बीच स्वस्थ जीवन जीने की कला (भाग :३)

पुरुष के 'अन्दर की बात' 'आघात' के भय से साथ 'वात' में झूलती है।

बॉक्सर पहना जाए कि ब्रीफ़ ? कौन सा अण्डरवीयर-डिज़ायन शुक्राणु-निर्माण के लिए बेहतर है ? मौसम गरम हो तो शुक्राणु कम बनेंगे ? सर्दी में उनका उत्पादन अधिक होगा ? पहली बात कि यह सच है कि पुरुष के वृषण-कोष या स्क्रॉटम जितना मुख्य देह के समीप रहेंगे , उतना उनका ताप शरीर-जैसा होगा। शरीर जैसा यानी 37 डिग्री सेल्सियस के पास। पास यानी शुक्राणुओं की पैदावार कम। तो ज़ाहिर है कि जो अंडरगार्मेंट वृषणों को ऊपर की ओर जकड़ कर रखेगा , उसके साथ शुक्राणु-उत्पादन में कमी आ सकती है। बॉक्सर पहनना ऐसे में शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाने के लिए बेहतर है। रही बात मौसम की , तो असली बात यह समझिए कि शुक्राणुओं का उत्पादन बाहर के नहीं , जिस्म के भीतर के ताप पर निर्भर है।

अगर बुख़ार होगा , वे कम बनेंगे। अगर वृषण शरीर में होंगे , उनका निर्माण कम होगा। बाहर चाहे लू चले और चाहे बर्फ़ गिरे , आदमी के शरीर का तापमान निश्चित दायरे में ही रहता है क्योंकि हम मनुष्य हैं , मेढक नहीं। हमारा ख़ून गर्म है , हम ठण्डे रक्त वाले जानवर नहीं हैं। इन दोनों बातों का सन्तान पैदा करने से क्या सरोकार , पता है ? कोई ख़ास सरोकार तब तक नहीं , जब तक आप आराम से बाप बन पा रहे हैं।

जब नहीं बन पाएँगे , तब आपकी फ़ाइल खुलेगी। शुक्राणुओं की संख्या देखी जाएगी , उनका आकार-आकृति , उनकी गति और वीर्य में अन्य तत्त्वों को भी जाँचा जाएगा। तब यह बॉक्सर-ब्रीफ़ और सर्दी-गर्मी के मायने आपके लिए महत्त्वपूर्ण हो जाएँगे। याद रखिए , एक शुक्राणु पैदा करने वाला पुरुष भी पिता बन सकता है : बस सम्भावना बहुत-बहुत-बहुत-बहुत कम होती है। संख्या में यही शक्ति है , वह सफलता सुनिश्चित कर देती है।



अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com 

 भाग १ और भाग २ भी पढ़ें

पुरुष, पौरुष और पुरुषत्व के बीच स्वस्थ जीवन जीने की कला (भाग :२)

"बात वीर्य और शुक्राणु के बीच सम्बन्ध की चल निकली थी"

 बहुधा लोग वीर्य और शुक्राणु में भेद नहीं जानते। जानने की उन्हें ज़रूरत भी नहीं लगती। वीर्य सन्तान पैदा करता है , सदियों से पता है। शुक्राणु देख लिये विज्ञान ने , तो देख लिये होंगे। कौन सा बड़ा काम किया ! साइंसवालों को तो हर काम जानबूझ कर बारीक कर के दिखाने की आदत है ताकि जता सकें कि पुराने लोगों को कुछ नहीं आता था। वीर्य को अँगरेज़ी Semen कहती है : लैटिन के Serere से निर्मित शब्द जिसका अर्थ रोपना या आरोपण करना होता है। जबकि शुक्राणु के लिए स्पर्म चलता है , जिसमें यूनानी के sperma का पुट है , जो बीज को कहा जाता है। सच तो यह है वीर्य में मात्र चार-पाँच प्रतिशत ही शुक्राणु होते हैं , शेष पच्चानवे प्रतिशत वीर्य अन्य पदार्थों से बना होता है। इन अन्य में प्रोटीन , अमीनो अम्ल , फ्रक्टोज़ नामक शर्करा , तमाम खनिज-विटामिन और रसायन आते हैं।

इनमें से एक को भी शरीर ने यों ही नहीं इस्तेमाल किया : हर पदार्थ को वह बड़े महत्त्व के कारण ही प्रयोग में लाती है। एक स्त्री जहाँ अपने सारे अण्डाणु जन्म के साथ लेकर ( लगभग सभी ! ) जन्मती है , पुरुष में वीर्य-निर्माण आजीवन चलने वाली घटना है। यह मनुष्यों के वृषणों में शरीर से बाहर दो छोटी मांसल थैलियों में घटती है , जिन्हें स्क्रॉटम नाम दिया गया है। शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में ठीक-ठीक तो नहीं पता लेकिन यह लैटिन के Scrautum से बहुत मिलता है। Scrautum तरकश या तूणीर को कहा गया जिसमें बाण रखे जाते थे। स्क्रॉटम भी पुरुषत्व के तूणीर ही हैं जिनमें शुक्राणु-रूपी बाण संचयित रहते हैं। एक सामान्य पुरुष को पिता बनाने के लिए दो वृषण आवश्यक नहीं , एक से ही इतने शुक्राणु निकलते हैं कि वह सन्तान उत्पन्न कर सकता है। शुक्राणु वृषण में बनते हैं , वहाँ से निकलकर और परिपक्व इपीडिडीमिस में होते हैं और यहीं भाण्डारित रहते हैं। कब तक के लिए ? वीर्य कोई अक्षय ऊर्जा का स्रोत नहीं। न वह ब्रह्मचर्य के कारण आजीवन भाण्डारित रह सकता है। वह बनता है प्रयोग के लिए , कुछ समय शुक्राणु इपीडिडीमिस में रखे जाते हैं।

लेकिन जब शरीर यह देखता है कि व्यक्ति इनका प्रयोग ही नहीं कर रहा तो वह इन्हें नष्ट कर के सोख लेता है।   वीर्य में शुक्राणुओं से इतर सामग्री का पच्चानवे प्रतिशत होना बताता है कि सन्तान-उत्पन्न करने वाले ये नन्हें तैराक इतना टीमटाम क्यों लेकर चलते हैं। क्योंकि आवश्यकता है। शरीर कुछ भी नाहक ही नहीं कर डालता। पुरुष सीधे वृषणों से वीर्य उत्पन्न करके भी उत्सर्जित कर सकता था। लेकिन शरीर में इपीडिडीमिस है , सेमाइनल वेसाइकल और प्रोस्टेट हैं , और भी कई ग्रन्थियाँ हैं। इन सब को जाने बिना मर्दानगी को जान लेना सम्भव नहीं। और फिर अतिशय महत्त्वपूर्ण अन्तःस्रावी तन्त्र है। वह जो स्त्रीत्व-पुरुषत्व का नियन्ता है। और फिर सबसे ऊपर मस्तिष्क है। जिसकी कोख में हर शारीरिक परिवर्तन जन्म पाता है और अपने गन्तव्य के लिए निकलता है।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

 भाग १ और भाग ३ भी पढ़ें

पुरुष, पौरुष और पुरुषत्व के बीच स्वस्थ जीवन जीने की कला (भाग :१ )

"धात की बात न उठाना बन्धु , क्योंकि वह तो सभी स्वस्थ पुरुषों के बनती है और बनती रहेगी।"

 लड़का अठारह साल का है और उसकी बुद्धि उसके गुप्तांग की जड़िता-बन्दिनी है। उसके सामने प्रेमभरे जीवन की आशाएँ हैं , अरमान हैं , उम्मीदें हैं। हर आशा-उम्मीद-अरमान के मूल में सर्जना है। हर सर्जना के केन्द्र में उसका पुंसत्व है। और पुंसत्व के मूल में उसका गुप्तांग। इसलिए वह मेरे पास वीर्य और गुप्तांग की समस्या को लेकर खुल रहा है। मैं वीर्य और गुप्तांगों का कोई विशेषज्ञ नहीं , जीवक आयुर्वेदा का डायरेक्टर हूँ। लेकिन जिस तरह से 'ऑल रोड्स लीड टु रोम' वाली कहावत चलती है , उसी तरह 'ऑल एल्मेंट्स लीड टु द जेनाइटल्स' वाली बात भी सच साबित होती है। और फिर भारत का रोगी संस्कारों में आहार-विहार की बातें सुनता आया है। उसे कोई बीमारी हो जाए , उसकी शंका अन्ततः इन्हीं दो विन्दुओं पर जा कर ठहरती है --- 'खाने में कोई परहेज़ ?' और 'धात गिरती है'। अतः हर ओ.पी.डी. में खानपान के सैकड़ों सवाल उठाये जाते हैं। हर डॉक्टर को कई बार गोपन गुप्तांग-गाथा सुननी ही पड़ती है।

पहली बात सपाट प्रश्न के रूप में प्रस्तुत की जाती है , तो दूसरी अपराधबोध से ग्रस्त स्वीकृति के साथ सामने लायी जाती है। लड़के को लगता है कि उसका शिश्न टेढ़ा है। उसे यह भी बोध हो रहा है कि उसका वीर्य पतला हो रहा है। उसे यह भी चिन्ता सता रही है कि वह हस्तमैथुन से लत से मुक्त नहीं हो पा रहा। अब वह गर्लफ़्रेंड कैसे बनाएगा ? अब शादी किस तरह हो सकेगी ? और फिर बच्चे ? लड़के से मैं कहता हूँ कि शिश्न और वीर्य परस्पर उतने सम्बद्ध नहीं है , जितना वह सोचता है। शिश्न एक पुरुष-अंग हैं , पेशाब और वीर्य को निःसृत करने का। वीर्य का काम स्त्री के अण्ड से मिलकर नये भ्रूण का निर्माण करना होता है। शिश्नहीन जन्तु भी है सृष्टि में , वीर्य उनके भी बनता है।

उन जातियों के पुरुष अपने गुप्तांग को स्त्री-शरीर में प्रविष्ट नहीं कराते , वीर्य-अण्ड का मिलन उनके यहाँ बाहर खुले में हुआ करता है। मेढक इस तरह के यौन-सम्बन्ध का सबसे बड़ा उदाहरण है। मैं उसे आगे समझाता हूँ कि शिश्न पुरुष की यौन-क्रीड़ा की जीभ है। इससे वह सेक्स-सुख की प्राप्ति कर पाता है। जिस तरह मानव की जिह्वा तमाम रसों को अपनी तन्त्रिकाओं द्वारा अनुभूत करके मस्तिष्क तक उन्हें पहुँचाती है और उनका भोग पाती है , उसी तरह यह काम शिश्न करता है। उसके अग्रिम सिरे पर , जिसे शिश्न-मुण्ड कहा जाता है , तमाम तन्त्रिकाएँ यौन-उत्तेजना को महसूस करती हैं। जिह्वा और शिश्न मात्र अनुभूतियों को बटोरने का स्थान हैं , शेष सारा काम खोपड़ी के भीतर बैठा दिमाग़ करता है। फिर मैं उससे कहता हूँ कि शिश्न की लम्बाई को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे दिया गया है।

 वीर्य-विक्षेपण और यौन-सुख , दोनों के लिए अतिशय लम्बा पुरुष-गुप्तांग कोई गारण्टी नहीं है। स्त्री योनि-मुखांग पर वीर्य-आलेप भर से भी गर्भवती हो सकती है , कई बार सालों-साल पूर्ण प्रयास के बाद भी लोग माँ-बाप नहीं बन पाते। सेक्स का सुख मात्र गुप्तांग-प्रविष्टि पर ही नहीं अवलम्बित है , अन्य अनेक कारणों पर भी उसकी अतिशय निर्भरता है। सच तो यह है कि इस उम्र में सन्तान-वन्तान कैसे करते हैं , की उसे न तो कोई जिज्ञासा है और न जानकारी। उसका ध्यान क्रीड़ा की सफलता पर अधिक टिका है। कहीं ऐसा न हो , कि वह चूक जाए और उसकी प्रेयसी-पार्टनर उसे कच्चा समझ कर तिरस्कार-सहित त्याग दे।

लड़के ने सुना है कि वीर्य अस्थि-मज्जा में बनता है। मैंने उसे बताता हूँ कि अस्थि-मज्जा में मात्र रक्त बनता है। वीर्य का मज्जा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। पुराने लोगों ने मर्दानगी को क़ीमती माना होगा , इसलिए वीरता से वीर्य का सम्बन्ध जोड़ लिया। और फिर नन्हीं-नहीं सफ़ेद बूँदों की कथा को खींचते-खींचते मज्जा तक ले गये। मैं उससे कहता हूँ परम कायर के भी सैकड़ों पुत्र को सकते हैं , परम वीर भी निरबंसिया हो सकता है। परम कातर भी कामक्रीड़ा-पटु-प्रवीण होकर दसियों-सहस्रों स्त्रियों को तुष्ट कर सकता है और अतिशय प्रतापी भी केलिक्रीड़ा-भूमि का भगोड़ा साबित हो सकता है। लड़के को मैंने बता दिया है कि सेक्स एक ऑर्केस्ट्रा-प्रस्तुति है , वह भ्रमवश उसे अकेला रियाज़ समझ रहा है। और फिर वीर्य ? उसके निर्माण का सेक्स से कोई सम्बन्ध नहीं है। वीर्य नित्य बना करता है पुरुष-वृषणों में , जो चमड़ी के कोषों में नीचे झूला करते हैं। ऐसा इसलिए कि उनके शुक्राणुओं के निर्माण के लिए एक डिग्री कम तापमान की आवश्यकता होती है। इसलिए पुरुष अपने वृषण शरीर के भीतर नहीं रखता , उन्हें बाहर कोषों में स्थान देता है। लड़का यही नहीं जानता था कि वीर्य और शुक्राणुओं में क्या भेद है। मैं उसे बताता हूँ कि वीर्य में शुक्राणु होते हैं , मगर उसमें और भी बहुत कुछ होता है। तमाम रसायन , अनेक पदार्थ। फिर वीर्य कोई पतला-वतला नहीं होता। वह कोई देसी-जरसी गाय का दूध थोड़े ही है ! पुरुष की सन्तानोत्पत्ति-क्षमता वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या तय करती है , उन्ही गतिमत्ता बताती है , उनका स्वरूप तय करता है। जिसके वीर्य में जितने स्वस्थ-एथलेटिक-सुरूप शुक्राणु , वह सन्तान जनने के हिसाब से उतना श्रेष्ठ मर्द !

लेकिन शिश्न के आकार और सेक्स-क्रीड़ा से इस मर्दानगी का कोई लिंक नहीं। सेक्स एक ऑर्केस्ट्रा-प्रस्तुति है , तो शिश्न एक वाद्य-यन्त्र जिसका प्रयोग एक कला है। और यौनसुख और सन्तान-सुख उससे उपजने वाली लघुकालीन और दीर्घकालीन आनन्दप्रदायी उपलब्धियाँ। बहुत अच्छे यन्त्रों वाला बहुत अच्छा ऑर्केस्ट्रा भी कोई आनन्द न दे सके , ऐसा सम्भव है। यह भी हो सकता है कि लघुकालिक सुख देने वाला दीर्घकालिक सुख न दे पाये और दीर्घकालिक सुख देने वाला सदैव अपनी प्रेयसी-पत्नी को लघुकालिक सुख से वंचित रखे। लड़के को आज ज्ञान मिला है कि वीर्य कोई धातु नहीं जिसे सोना-चान्दी की तरह सँभाल कर तिजोरी में ताला मारकर रखा जाए। वह बनता रहता है , बनता रहेगा। तुम प्रयोग करोगे , तो निकलेगा। नहीं करोगे , तो भी समय-समय पर शरीर उसे पेशाब के रास्ते उत्सर्जित कर देगा। बहुत से शुक्राणु भीतर-भीतर ही नष्ट हो जाएँगे। शरीर उनकी सामग्री से नये शुक्राणुओं का निर्माण कर लेगा। लड़के को चाहिए कि वह हस्तमैथुन के अपराध-बोध से बाहर निकले। यौवन आया है , तो मैथुन की अपेक्षा है। यह स्वाभाविक है। उत्तेजना की आत्मतुष्टि कोई अपराध नहीं। न उससे कोई नैतिक-शारीरिक-मानसिक हानि होती है। जो इस प्रकार से से तुष्ट नहीं होते , उनके लिए सीधे सुलभ स्त्री-सहवास का मार्ग है। देह में उठते नैसर्गिक यौन-ज्वार के शमन का और कोई मार्ग नहीं। बुरी मात्र यौन-कुण्ठाएँ हैं। बुरा मात्र स्वीकृति के बिना भी स्त्री को भोग्या मान लेना है। गर्हित मात्र बलात्कार है।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

भाग २ और भाग ३ भी पढ़ें 

Friday, May 11, 2018

यौनकर्म और सन्तान उत्पत्ति

यौनकर्म का सम्बन्ध सन्तान उत्पत्ति से है , मगर कितना है यह जानना हर स्त्री-पुरुष के लिए आवश्यक है। यौन और जन्म , दोनों को जाने बिना न परिवार चलाया जा सकता और न समाज। और न ही दोनों का नियमन किया जा सकता है। आधुनिक गर्भनिरोधकों का ज़माना अपेक्षाकृत नया है। लेकिन प्राचीन काल से गर्भनिरोधकों के साथ-साथ संसार में अलग-अलग जगहों में कॉइटस इन्टरप्टस का प्रचलन था।

यौनकर्म का ऐसा ढंग , जिसमें पुरुष अपने स्तम्भित शिश्न को स्खलन से पूर्व ही बाहर कर लेता था। इस 'अधूरे' यौनकर्म में इस बात की मान्यता रहती थी कि सन्तान-उत्पत्ति कदाचित् इससे नहीं होगी। बात को समझना आवश्यक है।

यौनकर्म की उत्तेजना का चरम जिसे ऑर्गैज़्म कहा जाता है और जिसके साथ ही वीर्य योनि में स्खलित होता है का गर्भाधान से सीधा-सीधा सौ प्रतिशत का सम्बन्ध नहीं है। और यह भी जानना ज़रूरी है कि पुरुष और स्त्री में उत्तेजना के आरम्भ के साथ ही तमाम ग्रन्थियों से स्राव आरम्भ हो जाते हैं। इनका काम यौनांगों  शिश्न और योनि को स्निग्धता देना और मार्ग की अम्लीयता को घटा कर शुक्राणुओं के लिए ज़रूरी क्षारीयता बनाना होता है।

पुरुष-उत्तेजना में आरम्भिक निकला द्रव प्री-कम कहलाता है , जो बल्बोयूरेथ्रल ( काउपर ) ग्रन्थियों की उपज है। लेकिन इसमें भी कुछ शुक्राणु होते हैं , जिनके कारण स्त्री गर्भ धारण कर सकती है। निष्कर्ष स्पष्ट है : शिश्न के प्रवेश के बाद स्रावित द्रव की एक बूँद भी गर्भाधान करा सकती है। ऑर्गैज़्म के समय या उससे पहले शिश्न को बाहर कर लेना , गर्भनिरोधक के रूप में बेकार तरीका है। कोई ताज्जुब नहीं कि इसकी असफलता की दर 15-25% तक रहती है।

( क्रमशः इंटरनेट से साभार प्राप्त चित्र में अलग-अलग पुरुष-प्रजनन-ग्रन्थियों का वीर्य के अंश में योगदान। नन्हीं बल्बोयूरेथ्रल ग्रन्थियों का पानीनुमा स्राव सबसे पहले निकलता है। )


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Monday, May 7, 2018

दस्त / पेचिश या डायरिया / डिसेंट्री और एंटीबायटिक.....

दस्त लगने की दवाई आप मेडिकल-स्टोर से लेंगे , तो वह आपको लगभग हमेशा एंटीबायटिक थमाएगा।

मैं यह नहीं कहता कि दस्त / पेचिश या डायरिया / डिसेंट्री में एंटीबायटिक की कोई भूमिका नहीं है। लेकिन विना भूमिका जाने उपचार करना-कराना लक्ष्यहीन ढंग से गाड़ी चलाना-चलवाना है। और फिर डायरिया कौन सा एक रोग है। वह कौन सा एक कीटाणु , एक कारण से होता है।

सरकारें रात-दिन टी.वी.-रेडियो पर ओ.आर.एस. ( ओरल रीहाइड्रेशन सीरप ) के लिए गला यों ही नहीं फाड़ा करतीं। बालरोग-विशेषज्ञ ऐसे ही नहीं बच्चों के चलते पेट के लिए ओ.आर.एस. न होने की सूरत में तमाम घरेलू नुस्ख़े बताया करते। उसके पीछे पूरा-पूरा आन्त्र-विज्ञान काम करता है। दस्त अमूमन चाहे जिस लिए हो , उसमें होने वाली हानि का मुख्य कारण शरीर से पानी और तमाम खनिजों का मल के रास्ते निकल जाना होता है।

कीटाणुओं अथवा उनसे उत्पन्न होने वाले विषों का दुष्प्रभाव इसके बाद आता है। रोगी की स्थिति में बिगाड़ अथवा सुधार इसपर नहीं निर्भर करता कि आपने कितनी अच्छी एंटीबायटिक चला कर कितनी जल्दी कीटाणु मार दिये , बल्कि इसपर निर्भर करता है कि आपने शरीर से निचुड़ते पानी और लवणों की रोकथाम और भरपाई के लिए कितनी जल्दी क्या किया। और फिर हर कम अवधि का डायरिया बैक्टीरिया अर्थात् जीवाणुओं से नहीं होता। पाँच साल से छोटे बच्चों में 40-50 % दस्त वायरसों ( विषाणुओं ) की बदौलत होते हैं , जिनके लिए कोई एंटीबायटिक कारगर नहीं है। फिर तमाम जीवाणुओं से बनने वाले विष हैं , जो फ़ूड-पॉइज़निंग के अन्तर्गत आते हैं। अन्य परजीवी भी हैं , जो डायरिया की स्थिति पैदा कर सकते हैं। दीर्घकालिक दस्त-रोगों के कारण अलग हैं , जिनको पहचानने के लिए सुयोग्य जठर-रोग-विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़ती है।

ऐसे में मनमर्ज़ी से एंटीबायटिक-सेवन लाभ पहुँचाने से रहा , अलबत्ता कई बार हानिकारक सिद्ध हो सकता है। कुल मिलाकर दस्त एक रोग नहीं , रोगों का एक बहुत बड़ा और जटिल समूह है। वह कबसे है , उसकी प्रकृति क्या है , उसके संग अन्य लक्षण क्या हैं --- जैसे तमाम प्रश्न उसके निदान में सहायक सिद्ध होते हैं और फिर विविध जाँचों द्वारा उसकी पुष्टि की जाती है। दस्त के मूल में व्यक्तिगत और सामाजिक अस्वच्छ वातावरण है : ध्यान हमें उसके निराकरण पर देना चाहिए। झटपट एंटीबायटिक-सेवन से हम सशक्त कीटाणुओं की एक ऐसी फ़ौज तैयार कर रहे हैं , जिसका शमन-दमन आसानी से सम्भव नहीं होगा। सुपरबग की सेना सज चुकी है और उसके निर्माण में सभी का योगदान है : रोगी , मेडिकल-स्टोरवाले और डॉक्टर भी।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

स्त्री हॉर्मोनों और स्तन कैंसर के बारे में थोड़ा विस्तार से , किन्तु सरल भाषा मे

"वस्तुतः जब हम किसी हॉर्मोन को स्त्री-हॉर्मोन कहते हैं , तो हमारा आशय उस हॉर्मोन से होता है , जो स्त्री को जैविक रूप से स्त्री बनाता है। यानी स्त्री की देह का एवं उसका यौन विकास एवं गर्भ-धारण व सन्तान को जन्म देना। अन्यथा स्त्री-हॉर्मोन कहे जाने वाले हॉर्मोनों की उपस्थिति पुरुष-देह में भी होती ही है। यद्यपि यह मात्रा बहुत न्यून होती है।" "आगे।" "दो स्त्री-हॉर्मोन उल्लेखनीय हैं। #ईस्ट्रोजेन व #प्रोजेस्टेरोन।

आपको पता हो कि स्तन-कैंसर के विकास में इन हॉर्मोनों का प्रभाव चिकित्सकों-वैज्ञानिकों ने पाया है।"

 "कैसे ?" "ईस्ट्रोजेन का प्रभाव उल्लेखनीय है। यह हॉर्मोन बच्चियों के देह-विकास में भूमिका निभा कर उन्हें परिपक्व स्त्रियों में बदलता है। एक सामान्य स्त्री अपने जीवन के लगभग तीन दशक ईस्ट्रोजेन व प्रोजेस्टेरोन के प्रभाव में गुज़ारती है।" "कब से कब तक ? कैसे ?" "हर महीने हो रहा अण्डाणु का विकास और उसके बाद होने वाला मासिक धर्म इन्हीं दो हॉर्मोनों के घटते-बढ़ते स्तर का फल है।" "तो ?" "तो यह कि स्त्री के स्तन भी इन हॉर्मोनों के प्रभाव में लम्बे समय रहते हैं। ईस्ट्रोजेन की बढ़ी मात्रा का वैज्ञानिकों ने स्तन-कैंसर से सम्बन्ध पाया है।"

"किस तरह से ईस्ट्रोजेन एक स्त्री के जीवन में स्तन-कैंसर-जैसे दुर्घटना उत्पन्न कर सकता है ?" "जल्दी शुरू हुआ मासिक धर्म यानी स्त्री-स्तन जल्दी ईस्ट्रोजेन के प्रभाव में आये। देर तक चला मासिक धर्म यानी स्त्री-स्तन देर तक ईस्ट्रोजेन के प्रभाव में रहे। हॉर्मोन-रिप्लेसमेंट-थेरैपी में भी ईस्ट्रोजेन होता है। कई गर्भनिरोधक-गोलियों में भी। यानी हॉर्मोन के स्तर को फिर बढ़ाने से रिस्क।"

"और जो मोटापे का स्तन कैंसर से सम्बन्ध ?"

"मोटापा यानी अधिक वसा। आप को बता दूँ कि वसा-कोशिकाओं में भी ईस्ट्रोजेन का निर्माण होता है।"
"और माँ बनना या न बनना ?" " देर से माँ बनना या न बनना स्तन-कैंसर के ख़तरे बढ़ाता है। जिन महिलाओं की अधिक सन्तानें होती हैं , उन्हें कुछ रक्षण मिलता है।" "और स्तन-पान की भूमिका ?" "स्तनपान स्तन-कैंसर में रक्षण का काम करता है।" "तो क्या ईस्ट्रोजेन के स्तर को डॉक्टर कम नहीं कर सकते , ताकि स्तन-कैंसर हो ही न ?" "यह सब इतना सरल नहीं है। ईस्ट्रोजेन के लाभ अनेक हैं। स्त्री का विकास उसके माध्यम से है। फिर भी ईस्ट्रोजेन के प्रभाव से जो स्तन-कैंसर बढ़ते और पनपते हैं , उनको रोकने के लिए चिकित्सा-विज्ञान ईस्ट्रोजेन-रोधी दवाएँ इस्तेमाल करता है।" स्तन-कैंसर के #लक्षण_क्या_हैं और इस रोग को जल्दी पकड़ने के लिए महिलाएँ क्या कर सकती हैं ?" "स्तन-कैंसर के पाँच लक्षण महत्त्वपूर्ण हैं जिनपर हर महिला का ध्यान खींचना ज़रूरी है। स्तन में कोई गाँठ होना , विशेष रूप से अगर यह कड़ी हो , छूने पर इसमें दर्द न होता हो , या यह नीचे की सतह पर जमी हुई हो। कई बार स्पष्ट गाँठ नहीं भी होती और स्तन में आंशिक या पूर्ण सूजन होती है। यह पहला महत्त्वपूर्ण लक्षण है।" "अन्य ?" "कई बार कोई गाँठ काँख में या हँसुली के ऊपर भी हो सकती है। फिर स्तन के ऊपर की त्वचा पर चुचुआहट , जलन या उसका सिकुड़ जाना। स्तन में अथवा निप्पल में दर्द। निप्पल का भीतर सिकुड़ना। स्तन के ऊपर की त्वचा का लाल , पपड़ीदार होना या मोटा होना। स्तन पर कोई घाव उभर आना। स्तन से दूध के सिवा ( विशेषरूप से ख़ून ) कोई स्राव होना।" "क्या ये लक्षण स्तन-कैंसर की पुष्टि करते हैं ?" "न। ये लक्षण केवल इसलिए यहाँ बताये गये हैं , कि ये बड़े महत्त्व के हैं और इनपर तुरन्त ध्यान दिया जाना चाहिए। आगे इनके आधार पर डायग्नोसिस क्या बनती है , यह डॉक्टर देखकर बताएँगे।" "स्तन की गाँठों या समस्याओं के लिए किस विभाग में परामर्श लेना उचित रहता है ?"

"स्तन का सीधा सम्बन्ध प्रसूतिरोग से नहीं है। ऐसे में बेहतर यही है कि किसी जनरल सर्जन या आयुर्वेदिक कैंसर विशेषज्ञ से सम्पर्क किया जाए।" "लेकिन महिलाएँ अधिकतर स्तन-समस्याओं को लेकर स्त्रीरोग-विशेषज्ञों के पास जाती हैं।" "ऐसा वे क्यों करती हैं, यह आप भी समझते हैं। यहाँ हम बात कर रहे हैं कि कौन स्तन-सम्बन्धी गाँठों व अन्य समस्याओं को ढंग से समझ कर उनका निराकरण कर सकता है। सो यह काम जनरल सर्जन या आयुर्वेदिक डाक्टर की दक्षता के अन्तर्गत आता है। जानिए कि स्तन में उभरने वाली #हर_गाँठ_कैंसर_नहीं होती , लेकिन उस पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए। जानिए कि स्तन में लगी चोट का आगे स्तन-कैंसर होने से कोई सम्बन्ध नहीं पाया गया है। जानिए कि स्तन-कैंसर चालीस से कम उम्र की महिलाओं में भी हो सकता है , यद्यपि संख्या चालीस के आगे बढ़ती है। जानिए कि किसी भी तरह की ब्रा पहनने , डियोडोरेंट लगाने या ऊपर की जेब में मोबाइल फ़ोन रखने से स्तन-कैंसर का कोई सम्बन्ध नहीं पाया गया है। जानिए कि स्तनों के आकार बढ़ाने वाले इम्प्लांट लगाने से स्तन-कैंसर का कोई सम्बन्ध नहीं पाया गया है। जानिए कि स्तन-कैंसर पुरुषों में भी हो सकता है। जानिए कि किसी निकटस्थ रक्त-सम्बन्धी को स्तन-कैंसर होने का अर्थ यह नहीं कि अन्य लोगों को कैंसर होगा ही। जानिए कि स्तन-कैंसर महिला को गर्भावस्था के दौरान भी हो सकता है। जानिए कि स्तन-कैंसर में हमेशा गाँठ नहीं मिलती , अन्य लक्षण भी हो सकते हैं। जानिए कि 'अगर आप धूमपान-मदिरापान नहीं करतीं , वज़न नियन्त्रित रखती हैं और सही भोजन-व्यायाम करती हैं , तो स्तन-कैंसर कभी नहीं हो सकता' , एक अतिआशावादी वाक्य है। कैंसर के ढेरों कारणों के बारे में अभी हम ठीक से जानते नहीं हैं।

अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए  हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

हृदय एक जटिल तंत्र : जाने आपके लिए क्या करता है आपका दिल

लोग हृदय में उलझते हैं , वे हृदय की शब्दावली में भी उलझ रहे हैं। सो कुछ बातों से अवगत कराना आवश्यक हो जाता है। इन शब्दों का प्रयोग बहुधा हृदय-रोग-विशेषज्ञ करते हैं :
#मायोकार्डियल इन्फार्क्शन ,
#एंजायना पेक्टोरिस ,
#एरिद्मिया और
#कार्डियल एरेस्ट।
अब चारों पर बात और साथ-साथ कुछ आम अस्पष्ट शब्दों पर भी।

मनुष्य के पास एक ह्रदय है , जो एक मांस का लोथड़ा है। खोखला है। जीवन भर धड़कता है। शरीर से आते ख़ून से भरता है , शरीर को फिर ख़ून फेंकता है। लेकिन इस मज़दूर को भी ख़ुराक चाहिए। नहीं तो यह भी कमज़ोर हो सकता है। घायल हो सकता है। मर भी सकता है। सबको ख़ून देने वाले हृदय को ख़ून देने वाली तीन धमनियाँ हैं , जिन्हें कोरोनरी धमनियाँ कहा गया है। इन धमनियों में अगर रक्तप्रवाह आधा-अधूरा या पूरा अवरुद्ध होगा तो हृदय के लिए समस्याएँ पैदा होगी। ये समस्याएँ ही ऊपर के चिकित्सकीय नामों में आपको बताई गयी हैं।

कोई धमनी पूरी तरह खून के थक्के से बन्द हो जाए , तो जिस हिस्से में वह खून पहुँचाती हो , वह मर जाए। हृदय का उतना मांस मृत। यह मायोकार्डियल इन्फार्क्शन हुआ। इसे ही आम भाषा में जनता कई बार हार्ट-अटैक कह देती है। फिर अगर यह अवरोध का आधा-अधूरा हुआ तो हो सकता है कि दर्द चलने या काम करने पर हो लेकिन आराम करने पर न हो। यह स्थिति एंजायना पेक्टोरिस कहलाती है। एंजायना यानी दर्द , चाहे वह कहीं का भी हो। पेक्टोरिस यानी छाती का। तो इस तरह एंजायना पेक्टोरिस छाती में हृदय के कारण उठने वाले उस दर्द को कहा जाने लगा , जो मायोकार्डियल इन्फार्क्शन से कुछ कमतर है। स्टेबल एंजायना एंजायना का पहला प्रकार है , जो काम करने पर या तनाव पर उठता है और कुछ देर में आराम करने पर मिट जाता है।

एन्जायनारोधक दवाओं से इसमें आराम पड़ जाता है। लेकिन फिर एंजायना के और प्रकार भी हैं। कई बार यह दर्द बैठे-बैठे बिना कोई काम किये या बिना तनाव के हो गया। सामान्य एंजायना से यह दर्द कुछ लम्बा खिंच गया। या फिर एन्जाइनरोधक दवाओं से नहीं गया। इस तरह के एंजायना को अनस्टेबल एंजायना कहा जाता है। या फिर कोरोनरी बन्द न हुई हो , सिकुड़ गयी हो। अब इस प्रकार के एंजायना को प्रिंज़मेटल एंजायना कहा जाता है। या ऐसा भी हो सकता है कि कोरोनरी में ख़ून का रुकाव हो , लेकिन दर्द न हो। व्यक्ति को पता ही न चले। या मामूली उलझन-भर हो। या सिर्फ़ घबराहट। यह स्थिति सायलेंट एंजायना कहलाती है। डायबिटीज़ में ऐसी कई मौतों से डॉक्टर रोज़ जूझते हैं। अब आइए कार्डियक एरेस्ट पर। कार्डियक एरेस्ट यानी हृदय का रुकना। हृदय धड़कते-धड़कते कब रुकेगा। जब उसकी इतनी मांसपेशी को ख़ून न मिले कि वह बिना ऑक्सीजन मर जाए। लेकिन फिर कई बार स्वस्थ हृदय भी ख़ून में तमाम रसायनों-तत्त्वों के बढ़ने-घटने से रुक सकता है। मांसपेशी ठीक है , लेकिन खून का पर्यावरण गड़बड़ है। ऐसा कैसे होगा इसके लिए एरिद्मिया को ध्यान में रखनी ज़रूरी है। ( इसी कार्डियक एरेस्ट को साधारण लोग हार्ट फ़ेल होना भी कह देते हैं। )

हृदय मांसपेशी है। उसमें एक बिजली की लहरदार कौंध उठती है , तो वह धड़कता हुआ जिस्म में ख़ून फेंकता है। इस धड़कन का एक नियम , एक क्रम है। यही क्रम आपको ईसीजी में दिखता है। अब चाहे हृदय को ख़ून ढंग से न मिले और चाहे ख़ून में कोई गड़बड़ हो जाए , उसके धड़कन अनियमित हो सकती है। वह मरा नहीं है , लेकिन वह रुक सकता है। वह अभी जीवित है , लेकिन आराम करने लग गया। लेकिन उसके आराम ने मनुष्य की जान ले ली। यही कार्डियक एरेस्ट है। कई बार यह रुका हृदय दोबारा चल पड़ता है , कई बार कभी नहीं चलता। लेकिन अगर रुका हृदय दोबारा चला पर देर से चला , तो तब तक मस्तिष्क मर गया। अब यह मरा मस्तिष्क लेकिन चलता हृदय लिये व्यक्ति भला किस काम का ! यही ब्रेन-डेथ की स्थिति है।

( इण्टरनेट से लिये चित्र में तीन कॉरोनरियों को लपेटे सतत कर्मशील मनुष्य-हृदय। मायोकार्डियल इन्फार्क्शन और अनस्टेबल एंजायना में ईसीजी और ख़ून की जाँचों के आधार पर कुछ और भेद-प्रभेद हैं , जिन्हें जानबूझ कर मैंने छोड़ दिया है। )

अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com


Tuesday, April 3, 2018

चलो जाने अस्थमा क्या क्यों कैसे ?

अस्थमा जिससे आज के युग मे काफ़ी लोग पीड़ित है वेसे तो श्वास लेने में समस्या हो तो लोग उसको सामान्य लोग अस्थमा या दमा बोल देते है तो चलिए आज हम आपको बताते है कि ये अस्थमा क्या है

परिचय 

ये रोग प्रायः अचानक ही शुरू होता है ,इसमे रोगी आसानी से श्वास लेने दिक्कत होती है, उसके फेफड़ों से सिटी की आवाज (wheezing) आती है। ये समस्या श्वास नली (bronchial airways) के सिकुड़न आने से होती है वहाँ की श्लेष्मा झिल्ली की सूजन या बलगम को एकत्र होने से उत्पन्न होते है

सामान्यतः दमा (ब्रोन्कियल अस्थमा)  के कारण होते है

वेसे तो आधुनिक विज्ञान इसके मूल कारण पूर्ण   रूप से पता नही लगा पाया है इसके प्रमुख कारण को idiopathic मानता है

एलर्जी चाहे वो वाह्य जगत से हो या अभ्यन्तर ये भी इसका प्रमुख कारण है।

 ◆अक्सर कम उम्र में व मौसम बदलने पर
◆ hypersensitive जैसे मिट्टी ठंडी हवा, धुवा, पेड़, परागकण आदि

इसमे सामान्यतः मरीज को समस्या बनी रहती है ,

तो चलिए अब वात करते है आयुर्वेद के चिकित्सा सूत्रों की

आयुर्वेद में इसे प्राणवह स्रोत रोग मानता है साथ ही अपान वायु की उर्ध्वगमी होना करण माना है।

आयुर्वेद अपनी सिद्धातों को स्पस्ट करते हुवे कहा है कि इसमें प्रमुख तीन काम करे

1- वायु का अनुलोमन करे

2-जो कफ़ बन गया हो उसे तरल (liquid) करे

3- फिर उसे निकाल दे वमन आदि के द्वारा

4- कफ बनाने की प्रक्रिया को रोके ,

5- जो प्रत्युर्जा (allergy) की दशा पा कर सदा रोगी बनी है उसे समाप्ति करने हेतु चिकित्सा दे।

आयुर्वेद में वर्णित दिनचर्या का प्रयोग के ओर नित्य नाक में 2 बून्द गो घृत का प्रयोग कर आप आरोग्यता को प्राप्त कर सकते है ।

अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Monday, March 26, 2018

घबराइए नहीं यहाँ है मधुमेह का सही इलाज़

भारत मे शायद ही कोई विरले व्यक्ति होंगे जिनके जानने वालों को ये रोग न हुआ हो, मधुमेह आज महामारी की तरह पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले रहा है, पूरा विश्व की त्रासदी से जूझ रहा है तो चलिए आज हम इस काल से सबसे जिद्दी सामान्यतः जीवन शैली से उत्पन्न रोग मधुमेह की बाद करते है आधुनिक चिकित्सा में इसे  हम डायबिटीज मेलेटस (DM), के नाम से जानते है।

वेसे मधुमेह रोगों को एक रोग न बोल कर रोगों का समूह कहना उचित होगा क्यों कि ये स्वभाव से ही सिंड्रोम है ।
यदि इसे परिभाषित करना हो तो बोला जाए कि metabolism(चयापचय) संबंधी बीमारियों का एक समूह है जिसमें लंबे समय तक उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) का स्तर होता है।

उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) के लक्षणों में अक्सर

पेशाब आना( polyurea) होता है, प्यास की बढ़ोतरी (polydipsia)होती है,
भूख में वृद्धि होती है।

यदि अनुपचारित  छोड़ दिया जाता है यानी कोई चिकित्सा न लिया जाए तो , मधुमेह कई जटिलताओं(compliance) का कारण बन सकता है।  तीव्र जटिलताओं(acute compliance) में
मधुमेह केटोएसिडोसिस (diabetic ketoacidosis),

नॉनकेटोटिक हाइपरोस्मोलर कोमा (hyperosmolar hyperglycemic state), या मौत शामिल हो सकती है।गंभीर दीर्घकालिक जटिलताओं (chronic compliance)में हृदय रोग, स्ट्रोक, क्रोनिक किडनी की विफलता, पैर अल्सर और आंखों को नुकसान शामिल है।

तो चलिए अब बात करते है इसके कारण की

मधुमेह के कारण है या तो अग्न्याशय ( pancreas) पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता या शरीर की कोशिकायें इंसुलिन को ठीक से जवाब नहीं करती।

इंसुलिन के विषय मे आपको बता दु की  ये एक इस केमिकल या रसायनीक तत्व है जो हमारे पैंक्रियाज से निकल कर रक्त में आ जाता है जो कि ग्लूकोज को कोशिका के भीतर ले जाने से सहयोग करता है यानी यदि इंसुलिन न रह तो रक्त में ग्लूकोज रहेगा परन्तु वो कोशिकाओं में नही जा पायेगा ओर जब कोशिकाओ में नही जाएगा तो उसका पाचन (मेटाबोलिज्म) नही हो पायेगा ओर बॉडी को एनर्जी नही मिल पाएगी ।

यानी डायबिटीज़ में ख़ून में ग्लूकोज़ की मात्रा अमूमन प्लाज़्मा में या सीरम में नापी जाती है। प्लाज़्मा और सीरम को समझना ज़रूरी है पहले ? ख़ून की सारी कोशिकाओं को निकालने पर जो तरल हिस्सा बचा रह गया , वह प्लाज़्मा हुआ। और खून के जम जाने के बाद जो तरल हिस्सा शेष रहा ,  सीरम कहलाया। सीरम में ख़ून जमाने वाले तमाम प्रोटीन कोशिकाओं से बने थक्के में चले जाते हैं , जबकि प्लाज़्मा में केवल कोशिकाओं को हटाया जाता है। रक्त में मिलने वाली कोई भी प्रोटीन प्लाज़्मा में अलग नहीं होती।

यह जानकारी आपको इसलिए दी गयी कि आप जानें कि आपका ग्लूकोज़ 'किसमें' नापा गया है।
  • प्लाज़्मा में ? 
  • सीरम में ? 
  • अथवा सम्पूर्ण रक्त में ? 


यदि आप ग्लूकोमीटर का प्रयोग करते हों , तो उसपर लिखे निर्देश पढ़िए कि वह किस तरह से ग्लूकोज़ नाप रहा है। आमतौर पर ग्लूकोमीटर सम्पूर्ण रक्त में ग्लूकोज़-रीडिंग बताते हैं। पैथोलॉजी-लैब में लिया गया सैम्पल प्लाज़्मा में ग्लूकोज़ नापता है। इन दोनों के बीच 10-15 %  का अन्तर हो सकता है। प्लाज़्मा ग्लूकोज़ सम्पूर्ण ग्लूकोज़ से थोड़ा अधिक आता है। यानी पैथोलॉजी में अगर नापने वह 140 आया , तो सम्भवतः घर के सम्पूर्ण रक्तवाले ग्लूकोमीटर से नापने पर 120 के लगभग आये।

फिर ग्लूकोज़ की जाँचें खाली पेट और नाश्ते के दो घण्टे के बाद की जाती हैं।

  • खाली पेट का आशय क्या समझा जाए ? 
  • नाश्ता किसे कहा जाए ? 


एक बिस्कुट और सन्तरे वाला भी नाश्ता होता है और चार पराठों के साथ सब्ज़ीवाला भी। ऐसे में कोई तो मानक हमें तय करने होंगे न !

खाली पेट या निराहार का अर्थ यह होता है कि जाँच से आठ घण्टे पहले तक आपने कुछ न खाया हो। यही कारण है कि इस जाँच को सुबह कराया जाता है। पोस्ट-प्रैंडियल अथवा नाश्ते के उपरान्त करायी जाँच में दो घण्टे बाद रक्त में ग्लूकोज़ नापा जाता है। इसके पीछे भी चिकित्सा-विज्ञान का अपना सिद्धान्त है।

जैसे ही आपकी आँतों से भोजन अवशोषित होकर रक्त में पहुँचता है , पेट में मौजूद आपका अग्न्याशय इन्सुलिन नामक हॉर्मोन ख़ून में छोड़ने लगता है। इन्सुलिन का काम आपके  ख़ून से ग्लूकोज़ को शरीर के ऊतकों की कोशिकाओं के भीतर पहुँचाना है। दो घण्टों के बाद एक सामान्य आदमी में इन्सुलिन के सामान्य उत्पादन के कारण ग्लूकोज़ का स्तर सामान्य हो जाता है। लेकिन मधुमेह के रोगी में या तो इन्सुलिन बनता कम है या फिर ऊतक उसका कहा मानकर ग्लूकोज़ को भीतर नहीं लेते। इस कारण भोजन के दो घण्टे के बाद भी ख़ून में ग्लूकोज़ बढ़ा रहता है।

ग्लूकोज़ की एक और विशेषता है : यह लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर स्थित हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है। इस प्रक्रिया को ग्लाइकेशन या ग्लाइकोसाइलेशन कहा जाता है।ग्लूकोज़ का हीमोग्लोबिनी आलिंगन जो एक बार हो जाए , तो फिर हटता नहीं। वह लाल रक्त कोशिका के पूरे जीवन-काल तक यों ही बना रहता है। यथावत्। यह अँगरेज़ी की 'टिल डेथ डू अस पार्ट' वाली मीठी किन्तु ज़हरीली मुहब्बत है।.

प्रश्न जो हर मधुमेह-रोगी के मन में उठता है कि HbA1c अगर इतना महत्त्वपूर्ण है ,

  • तो इसे कितना रखा जाए ? 
  • भोजन-व्यायाम-दवाओं से इसकी नियन्त्रित सीमा क्या तय की जाए ? 


इस बाबत लगभग विश्व के सभी मधुमेह-विशेषज्ञ मानते हैं कि साढ़े छह - सात तक इसे सामान्यतः होना चाहिए। इससे अधिक संख्या अनियन्त्रित डायबिटीज़ की तरफ़ इंगित करती है।

एक बात और। बहुत ज़्यादा कसा हुआ ग्लूकोज़-नियन्त्रण , जिससे HbA1c साढ़े छह से भी नीचे चला जाए , भी उचित नहीं है और हानिकारक है। ऐसे में हर रोगी को अपने शरीर को समझते हुए डॉक्टर की सलाह से उसे साढ़े छह - सात के बीच रखने का प्रयास करना चाहिए।

वृक्क ( गुर्दा ) व यकृत-रोगियों में , सर्जरी के उपरान्त , रक्तस्राव व रक्त चढ़ाने के उपरान्त तथा कुछ दवाओं के कारण HbA1c का मधुमेह-मापन समस्या पैदा कर सकता है। ऐसे में अपने डॉक्टर से मिलकर सही परामर्श लेना चाहिए , ताकि मधुमेह नियन्त्रित रखा जा सके।

याद रखिए : 
अपना डॉक्टर बनना बुरी बात है। विशेषज्ञ जो आपको परामर्श देता है , वह न्यूनतम आठ -नौ साल पढ़कर वहाँ तक पहुँचा है। मधुमेह के मापन और नियन्त्रण के लिए इस्तेमाल होने वाली जाँचें और दवाएँ क्षेत्रीय नहीं हैं , इनका अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव है। यही जाँचें अमेरिका-यूरोप-आस्ट्रेलिया-अफ़्रीका हर स्थान पर इस्तेमाल होती हैं। ऐसे में विज्ञान पर सन्देह व्यक्त करना न सिर्फ़ उन्नत उपचार से वंचित रखता है , बल्कि आपको हँसी और दया का पात्र भी बनाता है

अब बात करते है मधुमेह के तीन मुख्य प्रकारो की




टाइप 1
डीएम पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन करने के लिए अग्न्याशय की विफलता का परिणाम है। इस रूप को पहले "इंसुलिन-आश्रित मधुमेह मेलाईटस" (आईडीडीएम) या "किशोर मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसका कारण अज्ञात है

आयुर्वेद इसे सहज यानी अनुवांशिक मानता है



टाइप 2
DM इंसुलिन प्रतिरोध से शुरू होता है, एक हालत जिसमें कोशिका इंसुलिन को ठीक से जवाब देने में विफल होती है। जैसे-जैसे रोग की प्रगति होती है, इंसुलिन की कमी भी विकसित हो सकती है। इस फॉर्म को पहले "गैर इंसुलिन-आश्रित मधुमेह(नॉन इन्सुलिन डिपेंडेंट DM " (एनआईडीडीएम) या "वयस्क-शुरुआत मधुमेह" के रूप में जाना जाता था। इसका सबसे आम कारण अत्यधिक शरीर का  वजन होना और पर्याप्त व्यायाम न करना है।
ये प्रायः आलस्य पूर्ण जीवन जीने वालो को होता है ,

टाइप 3

गर्भावधि मधुमेह इसका तीसरा मुख्य रूप है और तब होता है जब मधुमेह के पिछले इतिहास के बिना गर्भवती महिलाओं को उच्च रक्त शर्करा के स्तर का विकास होता है।

आयुर्वेद ओर मधुमेह

आयुर्वेद में मधुमेह के कारण बताते हुए कहा गया है कि

  • आलस्यपूर्ण जीवन जीना
  • दिन में सोना 
  • दही आदि गुरु द्रव्य सेवन
  • जल में रहने वाले या उसके आसपास रहने वाले जीव का मांस खाने से 
  • मातापिता के वीर्य दोष 


आयुर्वेद चिकित्सा के मूल सिद्धांतों म् पहला सिद्धान्त है 
निदान परिवर्जन
  • अर्थात् रोग के कारण को दूर करे, 
  • आलस्य पूर्ण जीवन का त्याग करें,
  • दिन में सोना जलीय मांस आदि को खाना आदि त्याग दे, 
  • अपने आहार विहार दिनचर्या ओर ऋतुचर्या को संयमित रखे,
  • भोजन में तिक्त एवम कषाय द्रव्यों का सेवन जरूर करे


फिर चिकित्सा के लिए आयुर्वेद में जो दवाये है उनका पहला काम इंसुलिन पर न होकर उसके मूल यानी जो बीट सेल इंसुलिन बनाते है उनपर होता है और उसको ठीक करता है उनका पोषण और rejuvenation करता है और इंसुलिन का बनाने योग्य क्षमता प्रदान करता है, दूसरी चीज ये की जो मधुमेह से अन्य अंग प्रभावित होते है उनको भी बचाता है और स्वस्थ रखता है, उदाहरण के लिए आखो की रोशनी जो अक्सर खत्म हो जाता है मधुमेह में आयुर्वेद की चिकित्सा से ये सभी सामान्य नही हो पाती है और कुछ लंबे समय तक सेवन से रोगी पूर्ण स्वस्थ हो जाता है ।




अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Saturday, March 24, 2018

शारीर को फ़िट रखने के लिए जरुरी है पंचकर्म

शरीर की शुद्धि की प्राचीन आयुर्वेदिक पध्दति है पंचकर्म। आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा के दो प्रकार होते है शोधन चिकित्सा एवं शमन चिकित्सा। रोग के कारक दोषों को शरीर से बाहर कर देने की पद्धति शोधन कहलाती है। शोधन चिकित्सा को पंचकर्म कहते है। पंचकर्म के माध्यम से विभिन्न असाध्य रोगों का इलाज किया जाता है। भागदौड़ की जिन्दगी में इंसान आज कई मानसिक एवं शारीरिक रोगों का शिकार हो चुका हैं, लेकिन पंचकर्म चिकित्सा द्वारा इसका इलाज पूरी तरह संभव है। इस पध्दति से शरीर को विषैले तत्वों से मुक्त बनाया जाता है। इसमें शरीर के सभी शिराओँ की सफाई हो जाती है,शरीर के सभी सिस्टम ठीक से काम करने लगते है। पंचकर्म के जरिये रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो जाती है।
पूर्वकर्म-पंचकर्म से पूर्व स्नेहन व स्वेदन विधियों से संस्कारित करके प्रधान कर्म के लिये तैयार किया जाता है। स्नेहन दो प्रकार से करते है। इसमे घृत ,तैल आदि से मालिश की जाती है। स्वेदन में शरीर से पसीने के माध्यम से विकार को निकालते हैं। प्रधान कर्म-इस पद्धति में अनेक प्रकियाओँ का इस्तेमाल करते है- वमन-कफ प्रधान रोगों का वमन कराकर ठीक किया जाता है। विरेचन-पित्त दोषों को विरेचन करवा कर ठीक किया जाता है। वस्ति-वात दोष को बाहर करने के लिये यह विधि की जाती है। रक्तमोक्षण-इसमें रक्त अशुद्धि वाले रोगों में अशुद्ध रक्त बाहर निकालने की कोशिश की जाती है। नस्य-नाक के छिद्रों में दवा डालकर कंठ तथा सिर के दोषों को दूर किया जाता है। पंचकर्म चिकित्सा से लाभ- शरीर को पुष्ट एवं बलवान बनाता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती हैं। शरीर की क्रियाओं का संतुलन ठीक करता है। रक्त शुद्धि से त्वचा कांतिमय होती है। इंद्रियों और मन को शांति मिलती है। दीर्घायु प्राप्त होती है। रक्त संचार बढ़ता है। मानसिक तनाव में कारगर है। अतिरिक्त चर्बी हटाकर वजन कम करता है। आर्थराइटिस, मधुमेह, तनाव, गठिया, लकवा आदि रोगोँ में राहत मिलती है। स्मरण शक्ति बढ़ती है।

 अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

हार्ट अटैक से बचना है तो करें ये उपाय

दिल का दौरा एक गंभीर बीमारी है। दिल का दौरा पड़ने के कई कारण है, जब हृदय में रक्त संचार ठीक से नही हो पाता है या बंद हो जाता है तो हृदय की मांसपेशियों को जरुरत के अनुसार आक्सीजन मिल नही पाती है, परिणामस्वरुप मांसपेशिया काम करना बंद कर देती है,तब हार्ट अटैक की संभावना बढ़ जाती है।

हार्ट अटैक पड़ने के कारण

  • हाई कोलेस्ट्राल 
  • शुगर 
  • मोटापा
  • हाई ब्लडप्रेशर
  • जेनेटिक प्राब्लम 
दिल का दौरा पड़ने का इलाज एलोपैथ में काफी मंहगा होता है। बाईपास सर्जरी में ब्लाकेज वाली जगह पर स्प्रिंग(स्टंट) डाली जाती है,यह काफी महंगा ट्रीटमेंट है, जिसे एंजियोप्लास्टी कहते है। स्टंट कराने के बाद फिर से ब्लाकेज बन जाता है, जिससे दुबारा दिल के दौरे का खतरा बना रहता है। दिल के दौरे से हमेशा के लिये बचना हो तो जीवक आयुर्वेदा द्वारा बताये उपाय जरूर करें कभी दिल का दौरा नहीं पड सकता।

1-भोजन में अलसी के तेल का प्रयोग करे, इसमे ओमेगा3 एसिड भरपूर मात्रा में होता है, इससे दिल को ताकत मिलती है।
2-अर्जुन की छाल का पाउडर 1-2. चम्मच ले,एक कप दूध व एक कप पानी मिलाकर इतना उबाले की आधा रह जाय,फिर उसे चाय की तरह पीयें।
3-मिश्री और सूखे आंवले का चूर्ण बनाकर एक चम्मच प्रतिदिन ले।
4-गुड़ और घी असमान मात्रा में नियमित खाने से दिल मजबूत होता है।
5-लौकी रक्त संचार को नियमित करती है व ब्लाकेज को खत्म करती है। तुलसी व पुदीने का रस लौकी के जूस में मिलाकर लेने से ब्लाकेज पूरी तरह खत्म होता है। दिल के मरीज को वसायुक्त चीजें, अधिक नमक वाली चीजें,सफेद चावल व साफ्ट ड्रिंक का प्रयोग बिल्कुल न करें।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Friday, March 23, 2018

पपीते में है औषधीय गुण: जीवक आयुर्वेदा

1-पपीता में पपेन नामक पाचन एंजाइम उच्च मात्रा में होता है,जो पाचन प्रक्रिया को बढ़ाता है। आंतो के कार्यो को बढ़ाता है,कब्ज रोकने में मदद करता है।पपीते में फोलेट,बीटा कैरोटीन व विटामिन ई व सी,उच्च मात्रा में होने के कारण आंतो के कैंसर नहीं होते।

2-पपीते में एंटी आक्सीडेंट गुण होने के कारण उच्च कोलेस्ट्राल के स्तर को कम करता है। पपीता फाईबर का भी एक अच्छा स्रोत है।

3-पपीते में कैरोटीनायड और जैक्सेटीन होता है जो आपके आंखो की रैटीना को नुकसान से बचाता है।
पपीते में एंटी इंफ्लेमेटरी एंजाइम होते है,जो गठिया के दर्द को दूर करते है,पापेन व चयमोपपेन नामक दो प्रोटीन पाचन एंजाइम होते है व विटामिन ए ,सी,ई,व बीटा कैरोटीन की उच्च मात्रा सूजन कम करने में सहायक होती है।

4-पपीते को फेस पैक के रुप में प्रयोग किया जाता है,यह त्वचा के छिद्रो को खोलने एवं मुंहासे के इलाज व त्वचा के संक्रमण को रोकने मे मदद करता है। त्वचा से मृत कोशिकाओं को बाहर निकालता है व चमकदार बनाता है।

5-पपीते में एंटी आंक्सीडेंट विशेष रुप से लाइकोपीन,बीटा कैरोटीन व बीटा क्रिप्टोक्साथीन कैंसर के जोखीम को कम करने में सहायक है। इस कैंसर विरोधी फल में आइसोथियोसाइनेट्स नामक यौगिक शामिल है जो कारसिनोजेंस को खत्म करते है व ट्यूमर दबाने वाले प्रोटीन की कार्यशीलता को बढ़ाते है,ये कैंसर कोशिकाओं के विकास के साथ साथ उसके निर्माण को भी रोकते है।यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है।

6-पपीता पोटेशियम एक अच्छा स्रोत है। उच्च रक्तचाप के मरीज के लिये बहुत लाभकारी है।

अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें।
अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Wednesday, March 21, 2018

जीवन के ये 6 मन्त्र आपको नहीं होने देंगे बीमार

आज रोजमर्रा के जीवन मे हम इतने व्यस्त होते जा रहे है कि अनेक रोगो का आगमन हमारे शरीर मे हो जाता है । तो आइए जानते है कि जीवन का शास्त्र आयुर्वेद हमे क्या मंत्र देता है जिसे अपना कर हम खुद को निरोगी कर सकते है ।

 मंत्र 1 - 

 सूर्योदय से पूर्व उठे ।

 मंत्र 2 - 

ताम्र पात्र का जल पीये ,जल कितना पीये इसके विषय मे बताया गया है कि अपनी अंजलि से 6 से 8 अंजलि।

मंत्र 3-

सर को बांध कर पगड़ी आदि से और् दाँतो को भींज कर मल त्यागे ।

मंत्र 4 - 

मुख में जल भर कर नेत्र को जल से धुले ।

मंत्र 5- 

अपने शारीरिक बल के आधा व्यायाम करें।

मंत्र 6- 

भोजन में मधुर अम्ल लवण कटु तिक्त कषाय का होना अनिवार्य है।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या के निःशुल्क परामर्श हेतु हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें।  अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

Monday, March 19, 2018

कहीं आपका उठता कदम ऑर्थोराइटिस की और तो नहीं

आज कल के रोजमर्रा के जीवन में घुटनो का दर्द या आर्थराइटिस आम सा होता जा रहा है आइये आखिर क्यों ये रोग इतनी तेजी से बढ़ रही है ; क्यों  सभी इसके शिकार होते जा रहे है ।

 अर्थराइटिस आखिर है क्या? 

ऑर्थोराइटिस शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है जिसमे ऑर्थो का अर्थ हड्डी होती है इटिस का अर्थ शोथ होता है जो की वेदना का करण होता है , सामान्य भाषा में बोले तो जोड़ो में सूजन (joint inflammation ) इसका करण मूल है

तो अब हम बात करते है इसके प्रमुख लक्षणों (symptoms) की 

  1. दर्द 
  2. सन्धि (joint) के गति का सीमित होना 
  3. सूजन (inflammation) 
  4. एक या अनेक संधियों में दर्द 
  5. संधियों में अकडापन(stiffness) 
  6. संधियों से आवाज आना 
  7. संधियों का विकृत (deformity)होना 
  8. संधियों की हड्डीयो में कोने का निकलना 


यदि ये लक्षण दिख रहे है तो मानिये की हड्डियों की कमजोरी के रोग आने शुरू हो गए । हड्डी के विषय में आपको बता दू की हड्डी फाइबर और मैट्रिक्स से बना ठोस, सख्त और मजबूत संयोजी ऊतक है। इसका मैट्रिक्स प्रोटीन से बना होता है और इसमें कैल्शियम और मैगनीशियम की भी प्रचूरता होती है।

क्या आप जानते हैं कि हड्डियों की मजबूती उसमें मौजूद खनिजोंकी वजह से होती है। यानी की सामान्यत जो इसके निर्माण घटक है वो ही इसके पोषक है।

आयुर्वेद और संधिशोथ 

आयुर्वेद में इसके मुख्य करण वात को माना गया है। आयुर्वेद के स्पष्ट कहा गया है की वात की वृद्धि से रुक्ष, लघु खर चल विशद आदि गुणों की वृद्धि होती है जो समान्यः वृद्धावस्था में वृद्धि को प्राप्त कर जॉइंट में रहने वाली श्लेष्मा (fluid) को सुखा कर दुःख और वेदना की विकट स्थिति उत्पन्न कर देता है ।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति और संधिशोथ 

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में घुटने का बदलना या लाक्षणिक चिकित्सा कर रोग के लक्षणों में आराम पहुचना ही एक मात्र विकल्प बताया गया है ।

जीवनशैली की त्रुटि

दर्द के लिए तेल का प्रयोग तो भारत का बच्चा बच्चा जनता है , दूध घी जो हम भारतीयो की नित्य भोजन में प्रयुक्त होने वाली वस्तु होती थी पिछले 2 दशक में हम भारतीयो को दिग्भर्मित किया गया की घी आपको नुकशान करता है ये हृदय ,यकृत आदि को खराब कर देता है और हम सभी ने अपने भोजन से दूध घी आदि को निकाल दिया और फिर अर्थराइटिस जैसे रोगों को महामारी की तरह फैला दिया। हम सभी के आहारो से विविधता का ग़ायब हो जाने एवं हानिकारक रसायन के सेवन ही हम सभी लो बीमार कर रहा है,


आइये हम जाने की आयुर्वेद कैसे काम करती है 

आयुर्वेद का मूल सिद्धान्त निदान परिवर्जन - चूँकि हम आपको पहले ही बता चुके है की इस रोग में मूल में वात की वृद्धि है अतः वात को बढ़ाने वाला आहार विहार का त्याग करे। फिर बढ़े वात का शमन कर दिया जाये तो रोग में आराम आने शुरू हो जाती है। आयुर्वेद में चिकित्सा की दो विधा है जिसमे से शोधन चिकित्सा जिसे पंचकर्म के नाम से जाना जाता है जो रोग को शीघ्र ही शमन क्र देती है

पंचकर्म की प्रमुख कर्म

  • अभ्यांगम् 
  • शिरोधारा 
  • निरुह वस्ती 
  • अनुवासन वस्ती 
  • जानु वस्ति इत्यादि 


शमन चिकित्सा एवं पंचकर्म के द्वारा जोड़ो की समस्या का स्थायी इलाज सम्भव है।
अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें  या हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें।  अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com