Monday, July 29, 2019

यकृत के सिरोसिस के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा

आयुर्वेद में, सिरोसिस ऑफ लिवर को यक्रित वृधि के रूप में जाना जाता है। जिगर मानव शरीर में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक है और जिगर की किसी भी बीमारी से गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। यकृत का सिरोसिस यकृत का एक पुराना, अपक्षयी रोग है जिसमें जिगर की कोशिकाओं का निरंतर विनाश और निशान होता है। जैसे ही जिगर की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं, उन्हें निशान के ऊतकों द्वारा बदल दिया जाता है।


आयु और आयु के अनुसार लक्षण और लक्षण


जिगर के सिरोसिस का सबसे आम कारण शराब का अत्यधिक उपयोग है। यह शरीर में कई अंगों को नुकसान पहुंचाता है लेकिन यह लीवर के लिए सबसे हानिकारक है। एक दोषपूर्ण और अस्वास्थ्यकर आहार भी इस बीमारी के कारण का एक कारण है। हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी और हेपेटाइटिस डी, दवाओं, विषाक्त पदार्थों और संक्रमणों से भी यकृत के सिरोसिस होते हैं। जिगर का रंग लाल से पीले रंग में बदल जाता है और यह सिकुड़ भी जाता है। चयापचय की प्रक्रिया में बाधा आती है और इसके परिणामस्वरूप भूख और वजन कम हो जाता है। यह दस्त, पेट फूलना और पुरानी गैस्ट्रिटिस के बाद हो सकता है और साथ ही लीवर आईडी के क्षेत्र में दर्द का अनुभव हो सकता है। शरीर सूज जाता है। व्यक्ति को खांसी और सांस लेने में कठिनाई महसूस हो सकती है, जो यकृत के बढ़े हुए आकार के कारण होता है जो डायाफ्राम पर दबाव डालता है।

जिगर के सिरोसिस के लिए कुछ उत्कृष्ट आयुर्वेदिक उपचार हैं।


1. भृंगराज – यह लीवर के सिरोसिस के लिए सबसे अच्छा उपाय है। तना, फूल, जड़ और पत्तियों से निकाले गए रस का उपयोग सिरोसिस को ठीक करने के लिए किया जाता है। रस से भरा एक चाय चम्मच शहद के साथ मिलाया जाता है और शिशु सिरोसिस के मामले में दिया जाता है।

2. कटुकी – यह वयस्कों के लिए यकृत के सिरोसिस के लिए पसंद की दवा है। हरड़ की जड़ के चूर्ण का प्रयोग किया जाता है। एक चाय का चम्मच जड़ के चूर्ण में बराबर मात्रा में शहद के साथ मिलाकर दिन में तीन बार लेना चाहिए। कब्ज के मामले में खुराक को दोगुना तक बढ़ाया जा सकता है। खुराक के बाद एक कप गर्म पानी लेना चाहिए। कटु जिगर को अधिक पित्त का उत्पादन करने के लिए उत्तेजित करता है, ऊतकों को पुन: सक्रिय करता है और इसलिए यह फिर से काम करना शुरू कर देता है।

3. अरोग्यवर्धिनी वैटी – यह कातुकी और तांबे का एक यौगिक है और सिरोसिस के उपचार में बहुत उपयोगी है। 250 मिलीग्राम की दो गोलियां दिन में तीन बार गर्म पानी के साथ लेनी चाहिए। हालत की गंभीरता के आधार पर खुराक को एक दिन में चार गोलियों तक बढ़ाया जा सकता है।

4. त्रिफला, वसाका और काकामाक्षी कुछ अन्य दवाएं हैं जो जिगर के सिरोसिस के उपचार के लिए आयुर्वेद द्वारा अनुशंसित हैं।

आयुर्वेद द्वारा निर्धारित अन्य प्राकृतिक अवशेष


उपर्युक्त आयुर्वेदिक दवाओं के अलावा, कुछ घरेलू उपचार भी हैं जो यकृत के सिरोसिस के मामले में स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक हैं। पपीते के बीज इस बीमारी को ठीक करने में मददगार होते हैं। पपीते के बीजों को पीसकर एक चाय के चम्मच नींबू के रस के साथ मिलाया जाना चाहिए और इसे रोजाना दो बार लेना चाहिए। यह यकृत के सिरोसिस के लिए एक उत्कृष्ट घरेलू उपाय है।

लीवर की विभिन्न स्थिति के लिए गाजर का रस और पालक का रस बेहद उपयोगी है। इसलिए, गाजर और पालक के रस का मिश्रण लिया जाना चाहिए जो यकृत की कार्यक्षमता को बढ़ाता है। अंजीर की पत्तियों का उपयोग लीवर के सिरोसिस के लिए एक लाभकारी उपाय के रूप में भी किया जाता है। अंजीर की पत्तियों को चीनी के साथ मैश किया जाता है और 200 मिलीलीटर पानी दिन में दो बार लिया जाना चाहिए।

मूली लीवर के सिरोसिस को ठीक करने में भी सहायक है। किसी भी रूप में मूली को आहार में शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा मूली के पत्तों से बने रस और नरम तने का सेवन रोज सुबह खाली पेट किया जाना चाहिए।

एक चुटकी सेंधा नमक के साथ नीबू का रस लेना सबसे आसान और सबसे कुशल तरीका है जिससे लीवर की कार्यप्रणाली में सुधार होता है। एक चुटकी सेंधा नमक के साथ टमाटर का रस भी इस स्थिति के लिए एक अच्छा उपाय है।

डाइट और अन्य रजिस्टर


लीवर से संबंधित किसी भी बीमारी के इलाज में आहार सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है।

सभी वसायुक्त, तैलीय, तले हुए और मसालेदार पदार्थ और खाद्य पदार्थों को पचाने के लिए कठोर नहीं लेना चाहिए।

शराब पर सख्ती से रोक लगाई जानी चाहिए और चाय, कॉफी और तंबाकू से भी बचना चाहिए।

गाय का दूध या बकरी का दूध, गन्ने का रस दिया जाना चाहिए दही के ऊपर बटर मिल्क को प्राथमिकता देनी चाहिए। लहसुन को लिवर के सिरोसिस के लिए भी मददगार माना जाता है।

यदि पेट तरल पदार्थ के साथ जमा होता है, तो रोगी को आहार को नमक मुक्त बनाया जाना चाहिए।

कब्ज होने पर स्थिति बिगड़ जाती है और इसे हटा दिया जाना चाहिए।

ताजा फलों और सब्जियों को आहार में शामिल करना चाहिए। जिन सब्जियों का स्वाद कड़वा होता है जैसे करेला, ड्रमस्टिक।

भारी व्यायाम नहीं करना चाहिए और केवल धीमी गति से चलने की सलाह दी जाती है।

Tuesday, July 16, 2019

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार विधि द्वारा कैंसर, किडनी, डायबिटीज के उपचार में नवीनतम अनुसंधानों का लाभ ले।

वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित परिणाम डायबिटीज के इंजेक्शन और दवाईयों से छुटकारा:


ज्यादातर मरीजों को एक सप्ताह में ही दवाओं और इंजेक्शन से छुटकारा मिल जाता है और उसका शुगर पहले से बेहतर नियंत्रित भी रहता है.डायबिटीज के दुष्परिणाम भी ठीक हो सकते हैं: सीरम क्रिएटिनिन में कमी, अधिक ऊर्जा, उम्र बढ़ने और कायाकल्प। अधिक यौन शक्ति और उत्साह के साथ कामेच्छा की हानि में सुधार। बिना किसी दवा के स्तंभन दोष का सुधार।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार डायबिटीज में कैसे काम करता है।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार का वैज्ञानिक आधार:


डायबिटीज की मुख्य वजह है शरीर की कोशिकाओं के द्वारा एनर्जी / उर्जा का सही तरह से इस्तेमाल नहीं कर पाना। आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार के द्वारा कोशिकाओं के मेटाबोलिज्म को ठीक किया जाता है जिससे कोशिकाओं द्वारा उर्जा का सही इस्तेमाल होने लग जाता है।आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से डायबिटीज की मूल समस्या ही ख़त्म हो जाती है। जब कोशिकाएं उर्जा का सही इस्तेमाल करने लगती हैं तो शरीर में ताकत आती है जिससे सेक्स की समस्या मिट जाती है और आप सुखी जीवन का आनंद ले सकते हैं। क्योंकि आपके भय का अंत हो जाता है इसलिए आप परिवार और समाज के लिए सार्थक जीवन जीते हैं। डायबिटीज में आयुलर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से किडनी फेलियर जैसे दुष्परिणाम नहीं होते।आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से डायबिटीज के दुष्परिणाम जैसे किडनी फेलियर, कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज, नपुंसकता इत्यादि भी ठीक होते हैं।

मधुमेह का आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार सबसे वैज्ञानिक है और मधुमेह की सभी जटिलताओं को रोकने में कारगर साबित होता है।

डायबिटीज में किडनी फेलियर के भय से बेहतर है आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार के द्वारा डायबिटीज की मूल समस्या ही खत्म हो जाती है, और आप किडनी फेलियर, हृदयाघात, अंधापन जैसे दुष्परिणाम से बच जाते हैं।

यह उपचार डायबिटीज टाइप -1 और टाइप 2 दोनों में सामान रूप से कारगर है.

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक पद्धति द्वारा डायबिटीज के उपचार के फायदे


इंजेक्शन से मुक्ति (टाइप-1 और टाइप-2 दोनों में) आप मधुमेह के मधुमेह के उपचार द्वारा इंजेक्शन और मधुमेह की सभी दवाओं से छुटकारा पा सकते हैं और आपकी शर्करा और कोलेस्ट्रॉल अपने आप नियंत्रित हो जाते हैं डायबिटीज के दुष्परिणाम- अंधापन, हृदयाघात और किडनी फेलियर की सम्भावना न के बराबर होती है. यदि आप आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक मधुमेह के उपचार में अपनाते हैं, तो गुर्दे की विफलता जैसी जटिलताओं का कोई मौका नहीं है।असमय बुढापे से मुक्ति : डायबिटीज के मरीज की उम्र 20 साल और बढ़ाई जा सकती है।मरीज़ को मानसिक समस्या जैसे- यादाश्त कम होना, डिप्रेशन, सुस्ती, इत्यादि से मुक्ति.जोड़ों का दर्द, स्फूर्ति की कमी, इत्यादि से मुक्ति.पेट की समस्या जैसे- दर्द, कब्जियत, बार-बार पेट ख़राब होना, इत्यादि से मुक्ति.आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से कैंसर होने की सम्भावना ख़त्म हो जाती है।आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से शरीर में रोग प्रतिरक्षण (इम्युनिटी) की क्षमता बढ़ जाती है, जिससे सर्दी, बुखार, जुकाम, इत्यादि कम होता है.आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से किडनी मजबूत होता है, और उसके ख़राब होने की सम्भावना न के बराबर होती है।हृदयरोग (Atherosclerosis) से बचाव करता है आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से सेक्स की समस्या भी ठीक होती है।

डायबिटीज में वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित उपचार लें


मेटाबोलिक उपचार डायबिटीज टाइप -1 और टाइप 2 दोनों में सामान रूप से कारगर है।

यह उपचार वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित और दुष्परिणामों को रोकने में सक्षम है।

मधुमेह का आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार सबसे वैज्ञानिक है और मधुमेह की सभी जटिलताओं को रोकने में कारगर साबित होता है।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार की सफलता दर:


डायबिटीज के परम्परागत उपचार जैसे रोज इंजेक्शन लेना अथवा शुगर कण्ट्रोल करने की दवाई इत्यादि से शुगर कभी भी कण्ट्रोल नहीं हो सकता।इस तरह के उपचार से किडनी फेलियर इत्यादि से बचाव भी नहीं होता।यही वजह है कि गणमान्य लोग जिसे अच्छी चिकित्सा उपलब्ध है वह ज्यादा किडनी फेलियर का शिकार हो रहे हैं।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार से शुगर तुरंत ही कण्ट्रोल हो जाता है क्योंकि इसमें कोशिकाओं की मुख्य समस्या ही खत्म हो जाती है । क्योंकि बिमारी की वजह ही ख़त्म हो जाती है इसलिए किडनी फेलियर, हृदयाघात इत्यादि की संभावना ही नहीं रहती।

शुगर कण्ट्रोल के अलावा मरीजों को कई अन्य फायदे भी होते हैं।इस तरह आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार परम्परागत एलोपैथिक उपचार से बेहतर है।

मधुमेह का आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार सबसे वैज्ञानिक है और मधुमेह की सभी जटिलताओं को रोकने में कारगर साबित होता है।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार ही क्यों?


अमेरिका में इस चिकित्सा पद्धति ने पारंपरिक इंजेक्शन पर आधारित उपचार का अंत कर दिया है। इस उपचार में शुगर स्वतः ही कण्ट्रोल हो जाता है और किडनी फेलियर जैसे दुष्परिणाम की कोई संभावना ही नहीं रहती। डायबिटीज के मरीज अपने चिकित्सक से क्या सवाल करें?

डायबिटीज के मरीज अपने चिकित्सक से निम्नलिखित सवाल जरूर पूँछें. ये सवाल आपकी जिंदगी बदल सकते हैं

जो दवाई अथवा इंजेक्शन आपको दिया जा रहा है उससे कितने दिनों में शुगर कण्ट्रोल हो जाएगा.आपके चिकित्सक जिसका उपचार कर रहे हैं उसमें कितने लोगों का शुगर कण्ट्रोल है अथवा जिसका HbA1C, 6 से कम है अगर दूसरे किसी भी मरीज का शुगर उस दवाई से कंट्रोल नहीं है फिर इस बात की क्या संभावना है कि उसी दवाई से आपका शुगर कण्ट्रोल हो जाएगा.आपके चिकित्सक द्वारा उपचार में कितने डायबिटीज के मरीज जिसकी उम्र 50 वर्ष से ज्यादा है और उसका किडनी स्वस्थ है अथवा क्रिएटिनिन 1 से कम है.अगर ज्यादातर लोगों की किडनी फेल हो जा रही है फिर इसकी क्या संभावना है कि आप उसी दवा को खाकर किडनी फेलियर से बच जायेंगे. जिस डॉक्टर से उपचार आप ले रहे हैं क्या उसके किसी भी मरीज का शुगर नियंत्रित हुआ है अगर हाँ तो उसके घर जाकर जरूर सत्यता की जांच करें. जिस डॉक्टर से आप उपचार ले रहे हैं कहीं उसे ही तो डायबिटीज नहीं है अगर हाँ तो फिर जो चिकित्सक खुद का उपचार नहीं कर पाए, तो फिर क्या यह संभव है कि उनसे कोई भी मरीज का शुगर नियत्रित हो पायेगा?

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
 हेल्पलाइन 7704996699

यदि आप गठिया से हैं परेशान तो यह पोस्ट आपके लिए है

आज कल हमारी दिनचर्या हमारे खान -पान से गठिया का रोग 45 -50 वर्ष के बाद बहुत से लोगो में पाया जा रहा है । गठिया में हमारे शरीर के जोडों में दर्द होता है, गठिया के पीछे यूरिक एसीड की बड़ी भूमिका रहती है। इसमें हमारे शरीर मे यूरिक एसीड की मात्रा बढ जाती है। यूरिक एसीड के कण घुटनों व अन्य जोडों में जमा हो जाते हैं। जोडों में दर्द से रोगी का बुरा हाल रहता है। इस रोग में रात को जोडों का दर्द बढता है और सुबह अकडन मेहसूस होती है। इसकी पहचान होने पर इसका जल्दी ही इलाज करना चाहिए अन्यथा जोडों को बड़ा नुकसान हो सकता है।हम यहाँ पर गठिया के अचूक उपाय बता रहे है.......

दो बडे चम्मच शहद और एक छोटा चम्मच दालचीनी का पावडर सुबह और शाम एक गिलास मामूली गर्म जल से लें। एक शोध में कहा है कि चिकित्सकों ने नाश्ते से पूर्व एक बडा चम्मच शहद और आधा छोटा चम्मच दालचीनी के पावडर का मिश्रण गरम पानी के साथ दिया। इस प्रयोग से केवल एक हफ़्ते में ३० प्रतिशत रोगी गठिया के दर्द से मुक्त हो गये। एक महीने के प्रयोग से जो रोगी गठिया की वजह से चलने फ़िरने में असमर्थ हो गये थे वे भी चलने फ़िरने लायक हो गये।

लहसुन की 10 कलियों को 100 ग्राम पानी एवं 100 ग्राम दूध में मिलाकर पकाकर उसे पीने से दर्द में शीघ्र ही लाभ होता है।

सुबह के समय सूर्य नमस्कार और प्राणायाम करने से भी जोड़ों के दर्द से स्थाई रूप से छुटकारा मिलता है।

एक चम्मच मैथी बीज रात भर साफ़ पानी में गलने दें। सुबह पानी निकाल दें और मैथी के बीज अच्छी तरह चबाकर खाएं।मैथी बीज की गर्म तासीर मानी गयी है। यह गुण जोड़ों के दर्द दूर करने में मदद करता है।

गठिया के रोगी 4-6 लीटर  पानी पीने की आदत डालें। इससे ज्यादा पेशाब होगा और अधिक से अधिक विजातीय पदार्थ और यूरिक एसीड बाहर निकलते रहेंगे।

एक बड़ा चम्मच सरसों के तेल में लहसुन की 3-4 कुली पीसकर डाल दें, इसे इतना गरम करें कि लहसुन भली प्रकार पक जाए, फिर इसे आच से उतारकर मामूली गरम हालत में इससे जोड़ों की मालिश करने से दर्द में तुरंत राहत मिल जाती है।

प्रतिदिन नारियल की गिरी के सेवन से भी जोड़ो को ताकत मिलती है।

आलू का रस 100 ग्राम प्रतिदिन भोजन के पूर्व लेना बहुत हितकर है।

प्रात: खाली पेट एक लहसन कली, दही के साथ दो महीने तक लगातार लेने से जोड़ो के दर्द में आशातीत लाभ प्राप्त होता है।

250 ग्राम दूध एवं उतने ही पानी में दो लहसुन की कलियाँ, 1-1 चम्मच सोंठ और हरड़ तथा 1-1 दालचीनी और छोटी इलायची डालकर उसे अच्छी तरह से धीमी आँच में पकायें। पानी जल जाने पर उस दूध को पीयें, शीघ्र लाभ प्राप्त होगा ।

संतरे के रस में १15 ग्राम कार्ड लिवर आईल मिलाकर सोने से पूर्व लेने से गठिया में बहुत लाभ मिलता है।

अमरूद की 4-5 नई कोमल पत्तियों को पीसकर उसमें थोड़ा सा काला नमक मिलाकर रोजाना खाने से से जोड़ो के दर्द में काफी राहत मिलती है।

काली मिर्च को तिल के तेल में जलने तक गर्म करें। उसके बाद ठंडा होने पर उस तेल को मांसपेशियों पर लगाएं, दर्द में तुरंत आराम मिलेगा।

दो तीन दिन के अंतर से खाली पेट अरण्डी का 10 ग्राम तेल पियें। इस दौरान चाय-कॉफी कुछ भी न लें जल्दी ही फायदा होगा।

दर्दवाले स्थान पर अरण्डी का तेल लगाकर, उबाले हुए बेल के पत्तों को गर्म-गर्म बाँधे इससे भी तुरंत लाभ मिलता है।

गाजर को पीस कर इसमें थोड़ा सा नीम्बू का रस मिलाकर रोजाना सेवन करें । यह जोड़ो के लिगामेंट्स का पोषण कर दर्द से राहत दिलाता है।

हर सिंगार के ताजे 4-5 पत्ती को पानी के साथ पीस ले, इसका सुबह-शाम सेवन करें , अति शीघ्र स्थाई लाभ प्राप्त होगा ।

गठिया रोगी को अपनी क्षमतानुसार हल्का व्यायाम अवश्य ही करना चाहिए क्योंकि इनके लिये अधिक परिश्रम करना या अधिक बैठे रहना दोनों ही नुकसान दायक हैं।

100 ग्राम लहसुन की कलियां लें।इसे सैंधा नमक,जीरा,हींग,पीपल,काली मिर्च व सौंठ 5-5 ग्राम के साथ पीस कर मिला लें। फिर इसे अरंड के तेल में भून कर शीशी में भर लें। इसे एक चम्मच पानी के साथ दिन में दो बार लेने से गठिया में आशातीत लाभ होता है।

जेतुन के तैल से मालिश करने से भी गठिया में बहुत लाभ मिलता है।

सौंठ का एक चम्मच पावडर का नित्य सेवन गठिया में बहुत लाभप्रद है।

गठिया रोग में हरी साग सब्जी का इस्तेमाल बेहद फ़ायदेमंद रहता है। पत्तेदार सब्जियो का रस भी बहुत लाभदायक रहता है।

गठिया के उपचार में भी जामुन बहुत उपयोगी है। इसकी छाल को खूब उबालकर इसका लेप घुटनों पर लगाने से गठिया में आराम मिलता है। अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करे

डॉ विवेक श्रीवास्तव
(प्राक्रतिक चिकित्सक )
जीवकआयुर्वेदा
☎7570901365

कीमोथेरेपी क्यों नहीं है कैंसर का सफल उपचार

कीमोथेरेपी क्यों नहीं है कैंसर का सफल उपचार


कीमोथेरेपी का उद्देश्य कैंसर कोशिकाओं को मारना और बीमारी को ठीक करना है। लेकिन कीमोथेरेपी से एक भी कैंसर रोगी ठीक नहीं हुआ है। इलाज के कई दावे हैं लेकिन वे मरीज कैंसर से पीड़ित नहीं थे। उनमें से अधिकांश का इलाज अमेरिका में चयापचय विधियों द्वारा किया गया था और भारत में यह खबर फैली थी कि उन्होंने कीमोथेरेपी ली है।

कृपया किसी भी कॉर्पोरेट या सरकारी एजेंसियों सहित किसी पर भी भरोसा करने से पहले कैंसर के इलाज के बारे में सावधानी से समझ लें। वे कुछ उद्योग के लाभ के लिए काम कर सकते हैं।

कभी भी किसी भी प्रकार की कीमोथेरेपी के लिए मत जाओ क्योंकि इससे आपको कभी भी बचत नहीं होगी बल्कि रोगियों की कीमोथेरेपी के कारण मृत्यु हो जाती है। चूंकि कैंसर का सुरक्षित और प्रभावी उपचार अभी उपलब्ध है, इसलिए कैंसर के हर मरीज को एक उम्मीद है। कीमोथेरेपी की सफलता दर

कीमोथेरेपी किसी भी प्रकार के कैंसर का इलाज नहीं कर सकती है। लेकिन अगर कोई कीमोथेरेपी लेता है तो उसके बचने की संभावना 2% से कम होती है। शोध में दिखाए गए अनुसार कीमोथेरेपी की पांच वर्षीय उत्तरजीविता दर 2% से कम है।

कीमोथेरेपी विधि का साइड इफेक्ट्स


पिछले कुछ समय से डरावनी कहानियों को सुनकर कई लोग कीमोथेरेपी को लेकर भयभीत हैं। ऑन्कोलॉजिस्ट आपको समझाएगा कि हाल के अग्रिमों ने इस उपचार को कम विषाक्त बना दिया है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस जहरीले उपचार से अब तक किसी मरीज को कोई फायदा नहीं हुआ है।

मतली और उल्टी: मतली और उल्टी शायद कीमोथेरेपी के सबसे अधिक भयभीत दुष्प्रभाव हैं। इस तरह से आपका शरीर इस उपचार से दूर जाने के लिए आपको सुरक्षा और चेतावनी दे रहा है। तब आपका डॉक्टर आपको लक्षण को नियंत्रित करने के लिए शामक देता है।

बालों का झड़ना: कीमोथेरेपी के साथ बालों का झड़ना आम है, और हालांकि यह आपके शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक नहीं है, लेकिन यह भावनात्मक रूप से बहुत परेशान कर सकता है।

अस्थि मज्जा का दमन: अस्थि मज्जा का दमन कीमोथेरेपी के अधिक खतरनाक दुष्प्रभावों में से एक है। इससे मरीजों की तुरंत मौत हो जाती है। अस्थि मज्जा के नुकसान के कारण अस्थि मज्जा में रक्त बनाने वाली कोशिकाएं होती हैं जो संक्रमण और एनेमिया के कारण रोगी को जीवित और मर नहीं सकती हैं।

मुंह के घाव: लगभग 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत लोग उपचार के दौरान कीमोथेरेपी-प्रेरित मुंह घावों का अनुभव करेंगे। स्वाद परिवर्तन: स्वाद परिवर्तन, जिसे अक्सर "धातु के मुंह" के रूप में जाना जाता है, कीमोथेरेपी से गुजरने वाले आधे लोगों के लिए होता है।

परिधीय न्यूरोपैथी: मोजा-दस्ताना वितरण (हाथ और पैर) में झुनझुनी और दर्द कीमोथेरेपी-प्रेरित परिधीय न्यूरोपैथी से संबंधित सामान्य लक्षण हैं और कीमोथेरेपी प्राप्त करने वाले लोगों के लगभग एक तिहाई को प्रभावित करता है।

आंत्र परिवर्तन: कीमोथेरेपी की दवाएं दवा के आधार पर कब्ज से लेकर दस्त तक आंत्र परिवर्तन का कारण बन सकती हैं।

सन सेंसिटिविटी: कई कीमोथेरेपी दवाएं धूप में बाहर जाने पर आपके सनबर्न होने की संभावना को बढ़ा देती हैं, कुछ को कीमोथेरेपी-प्रेरित फोटोटॉक्सिसिटी के रूप में जाना जाता है।

केमोब्रेन: कीमोथ्रेन शब्द को कीमोथेरेपी के दौरान और बाद में कुछ लोगों द्वारा अनुभव किए गए संज्ञानात्मक प्रभावों का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया है। मल्टीटास्किंग के साथ वृद्धि हुई भूलने की बीमारी से कठिनाई के लक्षण निराशाजनक हो सकते हैं, और यह परिवार के सदस्यों को इस संभावित दुष्प्रभावों के बारे में जागरूक करने में मदद कर सकता है। कुछ लोग पाते हैं कि अपने दिमाग को क्रॉसवर्ड पज़ल्स, सुडोकू, या जो भी "ब्रेन टीज़र" जैसे व्यायाम से सक्रिय रखते हैं, वे उपचार के बाद के दिनों और हफ्तों में मददगार हो सकते हैं।

थकान: कीमोथेरेपी का सबसे आम साइड इफेक्ट है, लगभग प्रभावित करना हर कोई जो इन उपचारों को प्राप्त करता है। दुर्भाग्य से, इस तरह की थकान एक प्रकार की थकान नहीं है जो एक कप कॉफी या नींद की एक अच्छी रात का जवाब देती है।

कीमोथेरेपी के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव


कीमोथेरेपी के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव आमतौर पर आपकी पहली चिंता नहीं है जब आप सुनते हैं कि आपको कैंसर के लिए कीमोथेरेपी की आवश्यकता है। सभी कैंसर उपचारों के साथ, उपचार के लाभों को संभावित जोखिमों के खिलाफ तौला जाना चाहिए। फिर भी, कुछ देर के दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी होना महत्वपूर्ण है-

साइड इफेक्ट्स जो कैंसर के इलाज के पूरा होने के महीनों या सालों बाद तक भी नहीं हो सकते हैं। अल्पकालिक साइड इफेक्ट्स के रूप में, इन लक्षणों का अनुभव करने वाले ऑड्स आपको प्राप्त होने वाली विशेष कीमोथेरेपी दवाओं पर निर्भर करेंगे। कुछ देर के प्रभावों में शामिल हैं:

हृदय रोग: कुछ कीमोथेरेपी दवाएं दिल की क्षति का कारण बन सकती हैं। क्षति का प्रकार हृदय की विफलता से वाल्व की समस्याओं से कोरोनरी धमनी रोग तक हो सकता है। यदि आप इनमें से कोई भी दवा प्राप्त कर रहे हैं, तो उपचार शुरू करने से पहले आपका डॉक्टर हृदय परीक्षण की सलाह दे सकता है। सीने में विकिरण चिकित्सा से दिल से संबंधित समस्याओं का खतरा बढ़ सकता है।

बांझपन: कई कीमोथेरेपी दवाओं के परिणामस्वरूप बांझपन का इलाज होता है। यदि कोई ऐसा मौका है जिसे आप कीमोथेरेपी के बाद गर्भ धारण करना चाहेंगे, तो कई लोगों द्वारा शुक्राणु या फ्रीजिंग भ्रूण जैसे विकल्पों का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है। उपचार शुरू करने से पहले इस चर्चा को सुनिश्चित करें।

परिधीय न्यूरोपैथी: कुछ कीमोथेरेपी एजेंटों के कारण आपके पैरों और हाथों में झुनझुनी, सुन्नता और दर्द कई महीनों तक बना रह सकता है, या स्थायी भी हो सकता है, जैसा कि उल्लेख किया गया है, अनुसंधान किया जा रहा है। न केवल इस दुष्प्रभाव का इलाज करने के तरीकों की तलाश करें, बल्कि इसे पूरी तरह से होने से रोकें।

सैकेंडरी कैंसर: चूंकि कुछ कीमोथेरेपी दवाएं कोशिकाओं में डीएनए के नुकसान का कारण बनकर काम करती हैं, वे न केवल कैंसर का इलाज कर सकती हैं, बल्कि किसी को कैंसर के रूप में भी विकसित होने का शिकार कर सकती हैं। इसका एक उदाहरण उन लोगों में ल्यूकेमिया का विकास है, जिन्हें आमतौर पर स्तन कैंसर के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा के साथ इलाज किया जाता है। कीमोथेरेपी पूरी होने के बाद ये कैंसर अक्सर पांच से 10 साल या उससे अधिक समय तक होते हैं।

अन्य संभावित देर से प्रभाव में सुनवाई हानि या मोतियाबिंद से लेकर फेफड़े के फाइब्रोसिस तक के लक्षण शामिल हो सकते हैं। हालांकि इन प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं का जोखिम आमतौर पर उपचार के लाभ की तुलना में कम होता है, अपने डॉक्टर से साइड इफेक्ट्स के बारे में बात करने के लिए कुछ समय लें जो आपके विशेष कीमोथेरेपी के लिए अद्वितीय हो सकते हैं।

तो, यह स्पष्ट है कि कीमोथेरेपी के दुष्प्रभाव कैंसर की तुलना में अधिक खतरनाक हैं।

जोखिम भरा उपचार क्यों लें जो कभी आपकी समस्या का समाधान न करें। ऐसे उपचार का विकल्प चुनना बेहतर है जो कैंसर से जुड़ी सभी समस्याओं को हल कर सके।

कीमोथेरेपी कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए जहरीली सामग्री है। लेकिन पिछले कई वर्षों से यह देखा जाता है कि उपचार की यह विधि किसी भी प्रकार के कैंसर का इलाज नहीं कर सकती है।

बल्कि आमतौर पर कैंसर के मरीज इस उपचार को लेने से मर जाते हैं। जो लोग इस उपचार को लेते हैं, वे लंबे समय तक नहीं रहते हैं क्योंकि आमतौर पर उन रोगियों में कीमोथेरेपी दवाओं के कारण ऑन्कोजीनिटी के कारण कई अंगों में कैंसर विकसित होता है। ये दवाएं सामान्य कोशिकाओं को भी मार देती हैं और उसी वजह से मरीजों की मौत हो जाती है।

आयर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए डिज़ाइन किया गया है और सामान्य कोशिकाओं के लिए पूरी तरह से हानिरहित है क्योंकि आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार कैंसर ऊर्जा चयापचय में कमजोर बिंदुओं का उपयोग करता है।

आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार के अतिरिक्त रसायन


उपचार की विषाक्तता: कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए कीमोथेरेपी में इस्तेमाल की जाने वाली साइटोटोक्सिक दवाएं जो कोशिकाओं के डीएनए पर कार्य करती हैं। जबकि आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार लक्ष्य के रूप में कैंसर सेल के ऊर्जा मेटाबोलिक का उपयोग करता है। ये साइटोटोक्सिक दवाएं द्वितीयक कैंसर और अचानक मृत्यु आदि जैसे दुष्प्रभावों वाले रोगियों के लिए बहुत हानिकारक हैं।

कैंसर कोशिकाओं को मारने में सक्रियता: चूंकि कैंसर कोशिकाओं और सामान्य कोशिकाओं के बीच डीएनए में कोई अंतर नहीं है, कीमोथेरेपी सामान्य कोशिकाओं को मारे बिना कैंसर कोशिकाओं को नहीं मार सकती है। जबकि आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार कैंसर कोशिकाओं के ऊर्जा चयापचय का उपयोग करता है। चूंकि कैंसर कोशिकाओं का ऊर्जा चयापचय प्रकृति में अवायवीय है, जबकि सामान्य कोशिकाएं ज्यादातर एरोबिक श्वसन का उपयोग करती हैं। इस प्रकार कैंसर की कोशिकाएं चुनिंदा रूप से मार दी जाती हैं।

उपचार के अत्यधिक प्रभाव:


आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार हानिरहित होता है, जबकि कीमोथेरेपी जहरीली साइटोटोक्सिक दवाओं के उपयोग के कारण हानिकारक होती है।

असफल दर: ​​कीमोथेरेपी की सफलता दर या 5 साल की जीवित रहने की दर केवल 2% है, जबकि आयुर्वेदिक चयापचय उपचार 60% से अधिक पांच साल की जीवित रहने की दर दे सकता है।

विकसित देशों से प्रमाण जानने के लिए लिंक पर कृपया क्लिक करें। https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/15630849

जीवन की गुणवत्ता: आयुर्वेदिक व मेटाबोलिक उपचार जीवन की गुणवत्ता में सुधार करता है, जबकि कीमोथेरेपी कैंसर के रोगियों के जीवन की गुणवत्ता को खराब करती है।

जीवन प्रत्याशा और जीवन रक्षा: रसायन विज्ञान में जीवन रक्षा और दीर्घायु जीवन की प्रत्याशा और जीवन की गुणवत्ता में कमी आयुर्वेदिक व चयापचय उपचार में वृद्धि की जाती है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा  
हेल्पलाइन 7704996699

Thursday, June 27, 2019

आयुर्वेद में ही है कैंसर का इलाज़

कैंसर की चिकित्सा के दौरान जीवक आयुर्वेदा व मैने यह अनुभव किया कि 98% कैंसर के मरीज सर्वप्रथम अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के अनुसार ही अपना ईलाज करवाते हैं। जहाँ सर्वप्रथम उन्हें बहुत अधिक शक्तिशाली एवं भयंकर एन्टीबायोटिक दी जाती है ताकि जो रोग समझ में नहीं आ रहा है, उस पर किसी तरह विजय दिखाई जा सके। ये दवायें शरीर के अन्दर भूचाल ला देती हैं। त्रिदोषों में और अधिक असाम्यता पैदा हो जाती है तथा सबसे अधिक बुरा असर पहले से ही कुपित वात पर पडता है।

जब उन भयंकर एंटीबायोटिक इंजेक्शनों का सार्थक असर भी दिखाई नहीं पड़ता तब विभिन्न टेस्टों के माध्यम से कैंसर होने का सबूत इकट्ठा करते हैं और फिर कीमोथेरेपी, रेडियेशन एवं अन्य अति भयंकर चिकित्सा शुरू कर देते हैं। आप सभी जानते हैं कीमोथेरेपी / रेडिएशन थेरेपी में क्या होता है - इसमें कैंसर सेल्स को खत्म किया जाता है। कैंसर कोशिकाओं की एक सहज पहचान जो ये कीमोथेरेपी की दवायें करतीं हैं और पहचान कर उन्हें खत्म कर देतीं हैं, वह है - इनके एक से दो, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16,….…में बहुत तेजी से विभक्त होकर बढ़नें की प्रक्रिया । इस कीमोथेरेपी में बस यही एक पहचान है कि जो भी एक कोशिका विभक्त होकर दो कोशिकाओं के रुप में बनने की प्रक्रिया में है, उसे नष्ट कर देना है। (In cancer, the cells keep on dividing until there is a mass of cells.)

अरबों खरबों सेल्स मिलकर शरीरगत एक टिश्यू का निर्माण करते हैं। (Body tissues are made of billions of individual cells.)
This mass of cells becomes a lump, called a tumour.
Because cancer cells divide much more often than most normal cells, chemotherapy is much more likely to kill them.

In Cancer, the cells keep on dividing until there is a mass of cells.

This mass of cells becomes a lump, called a tumour.

चूंकि मज्जा धातु के अन्तर्गत ही कोशिकाओं का निर्माण होता है, अतः कीमोथेरेपी में Bone marrow tissues को असामान्य ढंग से नष्ट कर दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप मज्जागत वात अत्यन्त कुपित हो जाती है और शरीर में भयंकर, असहनीय, अन्तहीन और इलाज हीन दर्द शुरू हो जाता है। पूरा का पूरा वातवह संस्थान (Neuro System of the Body) छिन्न भिन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में केवल एक ही आयुर्वेदिक दवा काम कर सकती है और वह अश्वगंधा घृत,पुर्ननवा,हल्दी।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

गर्दन में दर्द (सर्वाइकल) कब क्यों कैसे ?

जोड़ों में दर्द एक बहुत ही आम मुद्दा बन गया है, इसका दोष हमारी जीवनशैली या व्यस्त कार्यक्रम पर है। हम अक्सर अपने शरीर की मांगों को अनदेखा करते हैं; परिणामस्वरूप, स्वास्थ्य सम्‍मिलित हो जाता है। घुटने, पीठ, कंधे या गर्दन में दर्द वे सभी लक्षण हैं जिनके माध्यम से हमारा शरीर हमें बताता है कि हमें अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इन दर्द में से, गर्दन में दर्द कई लोगों की समस्या है। गर्दन शरीर का हिस्सा है जो सिर का समर्थन करता है और सिर को किसी भी तरह की गति के लिए अनुमति देता है। गर्दन में दर्द न केवल गर्दन को प्रभावित करता है बल्कि यह कभी-कभी शरीर के अन्य अंगों जैसे सिर, माथे और बाहों को प्रभावित करता है जिससे दर्द असहनीय हो जाता है। गर्दन के दर्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए और व्यक्ति को गंभीर होने से पहले ही उपचार कर लेना चाहिए। गर्दन के दर्द के कारणों और लक्षणों को जानना भी बहुत जरूरी है।

गर्दन के दर्द के लक्षण:

गर्दन दर्द के लक्षण हैं: गर्दन में गंभीर दर्द होना या उल्टी होना। हाथ या हाथ हिलाने में असमर्थता होना। गर्दन में दर्द होना या गांठ का अहसास होना। बुखार में गले में दर्द होना। गर्दन में दर्द होना या हाथ में कमजोरी  गर्दन के दर्द के कारण गर्दन में दर्द विभिन्न कारणों से हो सकता है;
1) गर्दन में दर्द का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण मांसपेशियों में खिंचाव या मोच के कारण होता है। यह गलत स्थिति में सोने, गर्दन की खराब मुद्रा, गर्दन में झटका, किसी भी गतिविधि, डेस्क पर काम करने या लंबे समय तक कंप्यूटर पर काम करने जैसे कारणों के कारण हो सकता है। गर्दन में खिंचाव मूल रूप से गर्दन की खराब मुद्राओं के कारण होता है जिसे हमारी जीवनशैली या किसी विशेष आदत पर दोष दिया जा सकता है।

 2) एक चोट या दुर्घटना जो गर्दन को नुकसान पहुंचाती है, गर्दन में दर्द का कारण हो सकती है।

 3) मेनिनजाइटिस एक चिकित्सा स्थिति है जो अक्सर कठोर गर्दन की ओर ले जाती है।

 4) बहुत सारी चिकित्सा स्थितियां हैं जो गर्दन के पुराने दर्द का कारण बनती हैं; रुमेटीइड गठिया, ऑस्टियोपोरोसिस, स्पाइनल स्टेनोसिस, सर्वाइकल स्पोंडोलिसिस, डिस्क हर्नियेशन। गर्भाशय ग्रीवा के कशेरुकाओं को प्रभावित करने वाली ये चिकित्सा स्थितियां गर्दन में दर्द की ओर ले जाती हैं।

आमतौर पर लोग गर्दन के दर्द को गंभीरता से नहीं लेते हैं जब तक कि यह गंभीर न हो जाए। वरना लोग दर्द निवारक के माध्यम से गर्दन के दर्द का समाधान पाने की कोशिश करते हैं। हालांकि यह गर्दन के दर्द से निपटने का सही तरीका नहीं है। अगर आपकी गर्दन में दर्द लगातार समस्या बन गया है, तो उचित उपचार करना बेहतर है।

गर्दन के दर्द के लिए आयुर्वेदिक उपचार बहुत सकारात्मक साबित होता है क्योंकि आयुर्वेद दर्द के मूल कारण को समझकर किसी भी दर्द की समस्या से निपटता है। आयुर्वेद में, गर्दन का दर्द ऐसी स्थिति है जो गर्दन क्षेत्र में उत्तेजित वात दोष के कारण उत्पन्न होती है।

गर्दन के दर्द के आयुर्वेदिक उपचार में निम्न तरीके शामिल हैं: 

कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों से बनी दवाओं में से कुछ रसना, अश्वगंधा, दशमूल हैं। ये दवाएं प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बनाई जाती हैं। बिमार दर्द से पीड़ित व्यक्ति को विभिन्न आयुर्वेदिक उपचार दिए जाते हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य दर्द को सुखदायक तरीके से दूर करना है। ये थैरेपी हैं शिरोधारा, शिरोबस्ती अभ्यंगम, ग्रीवा वस्ती और नस्यम.कुछ आयुर्वेदिक उपचार में  आहार प्रबंधन और व्यायाम भी शामिल है जो तनाव को दूर करने में मदद करता है जो शरीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

डॉ. विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 


हेल्पलाइन: 7704996699

Friday, June 21, 2019

चमकी बुखार का कहर आयुर्वेद करेगा असर...

देश में कई जगह एवं विशेष रूप से बिहार में दिमागी  बुखार / चमकी बुखार अपने प्रचंड रुप में सैकड़ों लोगों की मौत का कारण बन गया है। सम्पूर्ण एलोपैथी चिकित्सा पद्धति ने अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को भी आना पड़ा पर रिजल्ट ?

आयुर्वेदज्ञों को आगे आ कर मानवता के हित में काम करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है। मुझे लगता है निम्नलिखित इलाज प्राण रक्षा करने में समर्थ होगा :-
*शहद के साथ दालचीनी का पाउडर - चार वक्त
* महा सुदर्शन घन बटी + स्वर्ण बसंत मालती रस + अमृतारिष्ट - दो वक्त
* लवंग + कज्जली + शहद - तीनों वक्त
* हरताल गोदंती भस्म + मोती पिष्ठी + प्रवाल पिष्ठी - तीन बार चन्दनादि तेल लगाने हेतु।

कोई सामान्य व्यक्ति वगैर आयुर्वेदज्ञों की सलाह व उचित देखरेख के बिना इस फार्म्यूलेशन का प्रयोग न करे। आप सभी विद्वान आयुर्वेदज्ञों से अनुरोध है कि यदि आप अपना अनुभव शेयर करें तो बहुत कृपा होगी।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा


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Thursday, June 13, 2019

बच्चों को कब और कैसे दें लीची?

लीची और इसके कारण बच्चों में उत्पन्न होने वाले लक्षणों पर और काम किये जाने की आवश्यकता विशेषज्ञ बताते हैं, लेकिन कुछ बातें 2017 से वैज्ञानिक सामने लाये हैं। लीची में कुछ ख़ास रसायन होने के बाबत द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ जर्नल में एक विशिष्ट शोध छपा था। इस फल में हायपोग्लायसिन ए एवं मेथिलीन सायक्लोप्रोपाइल ग्लायसीन होते हैं, जो कुपोषित बच्चों के ख़ून में शर्करा का स्तर बहुत घटा सकते हैं। ऐसा बहुधा तब होता है , जब ये बच्चे शाम को भोजन नहीं करते और सुबह लीची के बाग़ों से गिरे हुए फल उठाकर खा लेते हैं।

यह शोध सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल , संयुक्त राज्य अमेरिका और नेशनल सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल , भारत के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से किया गया और तब यह निष्कर्ष पाया गया। एक बात जो और खुली , वह यह कि अनपकी-अधपकी लीचियों को खाने पर यह समस्या अधिक होती है , क्योंकि इन फलों में ये रसायन अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। वैज्ञानिकों-डॉक्टरों के अनुसार समस्या लीची का फल नहीं है , समस्या है कुपोषित रात से भूखे बच्चों का सीधे सुबह लीची खा लेना। लगभग सभी मरने वाले बच्चों के रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर अत्यधिक न्यून पाया जाता है।

इस शोध के साथ एक अन्य इतर बात जो बांग्लादेशी वैज्ञानिकों द्वारा सामने लायी गयी है , वह लीची की खेती के लिए प्रतिबन्धित एंडोसल्फान व अन्य कीटनाशकों का प्रयोग है। कई वैज्ञानिकों का कहना है कि निर्धन तबके के ये बच्चे लीचियों को बिना धोये दाँतों से छीलकर खाते हैं , जिससे उनके शरीर में एंडोसल्फान जैसे रसायन प्रवेश कर जाते हैं।

अब तक दो बातें स्पष्ट हैं : फलों को अच्छी तरह धोकर व छीलकर खाया जाए और भूखे बच्चों को सुबह सीधे खाने को लीचियाँ न दी जाएँ। अन्यथा रक्त में शर्करा-स्तर गिरने से बच्चे बीमार पड़ सकते हैं। आगे जितना ज्ञान हमें इस रहस्यमय रोग के विषय में अधिक होता रहेगा , उतने उचित व सार्थक क़दम हम उठा पाएँगे।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

अप्राकृतिक भोजन और स्वस्थ्य एक साथ संभव नहीं

असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||
अर्थात् : हे महाबाहो !
निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

अप्राकृतिक भोजन से आनन्द नहीं निकलता कोई बात नहीं। अब अगला अप्राकृतिक भोजन ढूँढ़ते हैं , शायद वहाँ आनन्द मिले।
पुराने ग्रन्थ जनक को विदेह कहते हैं। विदेह होने का# अर्थ देह से अलग होना या मरना नहीं होता। देह से अलग होने का अर्थ होता है , दैहिक इच्छाओं का ग़ुलाम न होना। रसगुल्ला मिला तो ठीक , न मिला तो भी कोई बात नहीं। एसी चला तो भी सो लेंगे , न चला तो भी नींद तो आएगी ही। लेकिन बाज़ार ने सतत कोशिशें कीं ताकि हमारी सारी कामेच्छाएँ ( वॉन्ट ) हमारी आवश्यकताओं ( नीड ) में बदलती चली जाएँ। सांख्य योग और गीता जब मन को दुनिग्रही बताते हैं , तो उसपर पड़ने वाले डोपामीनी प्रभाव की ही बात कर रहे होते हैं। वह जो किसी नशेड़ी सारथी की तरह है , जिसके कारण इन्द्रियों के पाँचों घोड़े बेलगाम हो जाते हैं।

अब ग्लोबल बिज़नेस वाले अंकलजी नया ज्ञान लेकर मार्केट में आये हैं और लोग उसपर झूम रहे हैं : लूज़ कंट्रोल , इंडल्ज , ड्रूल , मन ललचाये , रहा न जाए , नो वन कैन ईट जस्ट वन , ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा , छड्ड दुनिया को दुनिया तो देगी ज्ञान। अब चाहे इससे शरीर की ऐसी-तैसी हो , चाहे समूचे पर्यावरण की !

काम को इसलिए हमें दिया कुदरत ने ताकि हम निर्मिति-रत रहें। निर्माण तब तक जारी रहे , जब तक मौत न आ जाए। निर्माण केवल यौन-कर्म से ही नहीं होता , सेक्स से ही हम सन्तान नहीं पैदा करते। जो कुछ भी हमारे द्वारा सृजित किया जाता है , वह सब हमारी निर्मिति है। हमारी हर सर्जना जीव-पर्यन्त जारी रहे और निर्माण में बदले , दुर्भाग्य यह कि बाज़ारवाद-भोगवाद ने इस रासायनिक आशान्वयन को ही हमारी सबसे बड़ी रासायनिक कमज़ोरी में बदल दिया।

मिठाइयाँ केवल दीवाली-होली खायी जाती थीं , अन्य बड़े सुखों का जन-सामान्य के लिए टोटा था। राजे-महाराजे ही थे , जो रात-दिन डोपामीनी कुण्ड में गोते लगाया करते थे। फिर सामन्तवाद ने पूँजीवाद को स्थान दिया और तब मशीनों ने मॉर्केट बनाते हुए भोग को सर्वसुलभ कर दिया। एक सीमा तक यह आवश्यक और ठीक था : रोटी , कपड़ा , मकान , स्वास्थ्य , शिक्षा , नौकरी और थोड़ा मनोरंजन सबको मिले , यह ज़रूरी है। लेकिन फिर मनोरंजन ने अन्य सभी को ठेलकर किनारे कर दिया और व्यक्ति मनोरंजनी-मात्र बनकर रह गया। इतना कि उससे मनोरंजन के वादे पर आप सारी मौलिक आवश्यकताओं से उसका ध्यान हटा सकते हैं।

लड़के को स्मार्टफ़ोन मिल गया , वह पॉर्न देख रहा है। अब समझाते रहिए उसे कि पढ़ लो। डोपामीन पुरस्कार की ऐसी उम्मीद जगा चुका है , कि लड़का उसके तिलिस्म से निकल ही नहीं पा रहा। शराब और धुएँ का सेवन पहले कम था , अब बढ़ चला है। आउटिंग पहले कम होती थी , अब ख़ूब-ख़ूब होती है। उम्मीद लिए मानवों के ढेर बाज़ारों में आनन्द की तलाश में भटकते हैं। अब करते रहिए कोशिश दीर्घकालिक प्रेम , पीढ़ियों की सुरक्षा , स्वास्थ्य-जैसे लम्बे निवेशी मुद्दों की --- सुनने वाले आपको कम ही मिलेंगे।

अप्राकृतिक भोजन से स्वाद मिलेगा तो आनन्द मिल सकता है --- व्यक्ति मन को समझा रहा है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
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धूमपान से भी ख़तरनाक होता जा रहा है मोटापा

सिर्फ धूमपान छोड़ने और मोटापा घटाने-भर से भी आप अपने जीवन में कुछ साल और ढेर सारी खुशियाँ जोड़ सकते हैं।

धूमपान से केवल कैंसरों की ही नहीं पनपते , कई अन्य रोगों की आशंका भी धुएँ के कारण बढ़ जाती है। यही नहीं जो लोग सिगरेट-बीड़ी पीने वालों के साथ रहते हैं और परोक्ष रूप से उनका निकाला धुआँ भीतर लेते हैं , वे भी कई बार ढेरों बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। धुएँ में अनेक रसायन होते हैं , जिनसे मानव-शरीर पर ढेरों हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं। लेकिन अब दिलचस्प बात जो सामने आ रही है , वह यह कि मोटापे की तुलना में धूमपान कहाँ ठहरता है।

मोटापा संसार-भर में महामारी के रूप में फैलता जा रहा है। लोग आवश्यकता से अधिक खा रहे हैं और अधिकांश इस विषय में जागरूक भी नहीं। घर में खाना न बनाना , बार-बार आउटिंग करना या खाना ऑर्डर करना , स्वाद को पोषण पर तरजीह देना --- इन आदतों से वे ढेरों बीमारियों को रोज़ न्यौता दे रहे हैं। मोटापे से केवल हृदय-रोग , स्ट्रोक , डायबिटीज़ और घुटनों के गठिया का ही सम्बन्ध नहीं है , मोटापा स्वयं कई कैंसरों को जन्म देने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। कुछ ही समय में स्थिति यह आने वाली है जब मोटापा रोगकारक और मृत्युकारक के रूप में धूमपान को भी पीछे छोड़ देगा।

अगर आप धुएँ को पी रहे हैं , तो इसे तत्काल छोड़िए। इससे आपको जीवन के कुछ और वर्ष मिलेंगे। धूमपान को किसी भी रूप में महिमामण्डित करने और सुनने से बचिए --- यह केवल स्वयं को भुलावे और भ्रम में रखना है। फलों और सलाद का सेवन बढ़ाइए , वज़न घटाइए। कसरत नित्य करिए और जंक-भोजन से जितना हो सके , दूर हो जाइए।

दुनिया-भर में जागरूकता के कारण धूमपान घट रहा है , लेकिन जीभ की तलब के कारण मोटापा बढ़ रहा है। यह एक ख़तरे को छोड़कर दूसरे को अपनाने जैसा है। जिस तरह से धूमपान के विरोध में अभियान चलाये जाते हैं , उससे कहीं सक्रियता से हमें मोटापे और जंक-भोजन के खिलाफ अभियान छेड़ने की आवश्यकता है।
( चित्र में दिखाया ग्राफ़ अमेरिकी आँकडों को प्रदर्शित कर रहा है। हम अमेरिका की नकल करते हैं, मौलिक सोचते नहीं। )

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
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Saturday, June 8, 2019

मोटापा घटाना है तो लें कीटो आहार..

कीटो आहार का कॉन्सेप्ट नया नहीं है। पुराने समय में इसे डॉक्टर ( बच्चों के ) मिर्गी के दौरों को नियन्त्रित करने के लिए इस्तेमाल करते आये हैं। लेकिन आज जब मोटापा एक महामारी का रूप ले चुका है , तब इस आहार को हमें दोबारा थोड़े विस्तार से समझना आवश्यक हो जाता है।

सवाल है कि क्या मोटापा घटाने में कीटो-आहार उपयोगी है ? उत्तर है कि हाँ , लघु-मध्यम समय के लिए इस तरह का भोजन मोटापे को कम करने में निश्चित तौर पर मददगार है। लेकिन इस आहार के दीर्घकालिक प्रभाव मनुष्य के शरीर पर क्या होंगे , यह अभी हमें ठीक से नहीं पता।

मानव-मस्तिष्क ऐसा अंग है , जो ऊर्जा के लिए ग्लूकोज़ का इस्तेमाल करता है , वसा का नहीं। मस्तिष्क और रक्तसंचार के बीच एक अवरोध यानी बैरियर होता है , जिसे ब्लड-ब्रेन-बैरियर कहा जाता है। ग्लूकोज़ के अणु इस बैरियर को आसानी से पार कर के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ इस ग्लूकोज़ को रासायनिक अभिक्रियाओं के तोड़ा जाता है और इससे ऊर्जा पैदा की जाती है।

लेकिन क्या हो अगर कोई बीस ग्राम प्रतिदिन से कम ग्लूकोज़ ( यानी कार्बोहाइड्रेट ) खाने लगे ? व्रत रखता हो ? अनशन या भूख हड़ताल पर रहा करता हो ? ऐसे में मस्तिष्क को समुचित मात्रा में ग्लूकोज़ न मिल सकेगा। तब फिर शरीर अपने भीतर भाण्डारित प्रोटीनों और वसाओं से ग्लूकोज़ बनाने की पहले कोशिश करेगा। इस प्रक्रिया को ग्लूकोनियोजेनेसिस कहा जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया के भी काम नहीं चलता , क्योंकि भोजन में कार्बोहाइड्रेट का स्तर काफ़ी कम किया जा चुका है। तब फिर ?

तब वह शरीर में भाण्डारित वसा को ऊर्जा पैदा करने के लिए वसीय अम्लों में तोड़ेगा। लेकिन वसीय अम्ल ब्लड-ब्रेन-बैरियर के पार जा नहीं सकते। फिर ? ऐसे में तब वसीय अम्लों को तोड़कर कीटोन-बॉडी बनायी जाएँगी। ये कीटोन-बॉडी ब्लड-ब्रेन-बैरियर पार करने में सक्षम हैं और इनसे मस्तिष्क को ऊर्जा मिल सकेगी। इस तरह से ये कीटोन-बॉडी ग्लूकोज़ का स्थान ले लेंगी और अब मस्तिष्क इनसे ऊर्जा प्राप्त करेगा।

कीटोनों का ग्लूकोज़ की कमी में होने वाला यह शारीरिक निर्माण कीटोसिस कहलाता है। वज़न कम करने के अलावा कीटो-आहार खाने से कई अन्य लाभ भी लोगों ने पाने के दावे किये हैं। लेकिन अभी कुछ भी दीर्घकालिक पुख़्ता तौर पर कहा नहीं जा सकता है।

कीटो-आहार के पीछे दो बातों को और समझना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों हम सभ्यता के तौर पर विकसित हुए हैं , अधिकाधिक प्रोसेस्ड भोजन विशेषरूप से चीनी-मैदा जैसे कार्बोहाइड्रेटों की तरफ़ आये हैं। प्राचीन मानव की तुलना में आज का मानव अधिक कार्बोहाइड्रेट खाता है और उसी को मोटापा से जूझना भी पड़ रहा है। जंगली मनुष्य ( कृषि से पहले ) अधिकाधिक प्रोटीन और वसा पर ही निर्भर रहा करता था और स्वस्थ रहता था। फिर दूसरी बात लगातार खाते रहने की है। आजकल जहाँ आहारिकी कई बार एक दिन में कई छोटे-छोटे आहारों की बात करती आयी है , वहाँ शरीर के भीतर कभी भूख का या फिर ग्लूकोज़ीय रिक्तता का एहसास ही नहीं होता। ठीक से भूख लगी भी नहीं होती और लोगों को खाना मिल जाता है। कीटोन-उत्पादन के पीछे वह पुरानी किन्तु कारगर सोच भी है कि दो या एक समय भोजन करो। चौबीस घण्टों में हमेशा खाते न रहो। व्रत-उपवास इच्छाशक्ति का इम्तेहान तो हैं ही , कीटोन-उत्पादन के कारण वज़न भी नियन्त्रित रखते हैं।

लेकिन कीटो-आहार सबके लिये नहीं है। सभी अगर कार्बोहाइड्रेट छोड़कर वसा प्रचुर भोजन प्रोटीन सहित खाने लगें , तो समस्या भी आ सकती है। ऐसे में अपने शरीर की स्थिति को समझा जाए। बीमारियों के सन्दर्भ में डॉक्टर और डायटीशियन से बात की जाए। उसके बाद ही कीटो-आहार के पक्ष-विपक्ष में निर्णय लेना सही है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन : 7704996699

Friday, June 7, 2019

विटामिन बी 12 और फ़ोलिक अम्ल ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे !

2016 में भारत-सरकार ने भोजन में प्रयुक्त होने वाले अनाज ( विशेष रूप से गेहूँ ) के विटामिनों और खनिजों से संवर्धन के लिए मानक ड्राफ़्टों का प्रकाशन किया। यूनिसेफ़ और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएँ दशकों से इस बात पर बल दे रही हैं कि कुपोषण से निपटने के लिए बहुतायत में इस्तेमाल होने वाली खाद्य-वस्तुओं को सरकारें पहल करते हुए विटामिन-खनिज-पदार्थों से संवर्धित करे।

आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा रोग से बारे में बहुत से लोग परिचित हैं। लेकिन आयोडीन की ही तरह भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या में लोहे , जस्ते , विटामिन ए , डी और फ़ोलिक अम्ल की कमियाँ भी ख़ूब देखने को मिलती हैं।

बचपन में डालडा का पीला डिब्बा सबको याद होगा , जो विटामिन ए और डी से संवर्धित रहा करता था। आज-कल बिक रहे तमाम तेलों में से किसी में भी ये तत्त्व शामिल नहीं रहते। इस विषय में फ़ूड स्टैंडर्ड्स सेफ़्टी अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया व खाद्य-तेल-उद्योग के बीच मतभेद रहे हैं। तेल-उद्योग का कहना है कि भारतीयों की चूँकि आदत तेल को पका कर इस्तेमाल करने की है , इसलिए उसमें विटामिन ए और डी का संवर्धन बेकार है। पकाने-खौलाने से वे नष्ट हो जाएँगे और किसी का भला नहीं होगा। उलटे संवर्धन के लिए जनता को अपनी जेब थोड़ी और ढीली करनी पड़ेगी।

भोज्य-पदार्थों के संवर्धन पर चर्चा फिर कभी होगी। आज बात उस तत्त्व की , जो लोहे और आयोडीन से कम आवश्यक नहीं और उसके संवर्धन के बारे में भी विचार किया जा रहा है। पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के बाद उस तत्त्व को जानना और भी आवश्यक हो जाता है। उसका नाम फ़ोलिक अम्ल या फ़ोलेट है। विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स का सदस्य होने के कारण इसे विटामिन बी 9 के नाम से भी जाना जाता है। शस्य के साथ श्यामल को इस्तेमाल भारतीय जन सहज ही कर लेते हैं।

'शस्य-श्यामलाम्' विशेषण बंकिमचन्द्र से लेकर आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आपको जगह-जगह मिलता है। 'शस्य' जहाँ नवपरिवर्धित धान्य-इत्यादि के लिए प्रयुक्त होता है , वहीं 'श्यामलता' कालेपन की परिचायक है। और यहाँ यह बात मन में बैठा लेनी ज़रूरी है बिना श्यामलता के शस्यता का कोई महत्त्व नहीं।

गहरे रंग की ये साग-सब्ज़ियाँ फ़ोलिक अम्ल का एक प्रचुर स्रोत हैं। ( 'फ़ोलेट' शब्द ही लैटिन के 'फ़ोलियम' से बना है , जिसका अर्थ पत्ती होता है। ) इसके अलावा मांसाहार , दूध व दुग्ध-उत्पाद , फल व समुद्री भोजन में भी उसकी समुचित मात्रा पायी जाती है। यहाँ साथ में ध्यान देने वाली बात यह भी है सब्ज़ियों और अन्य आहारों को गरम करने व पकाने से फ़ोलिक अम्ल की बहुत बड़ी मात्रा नष्ट हो जाती है।

पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के समय आपको मेगैलोब्लास्टिक अनीमिया याद होगा। रक्त कोशिकाओं के सम्यक् विकास के लिए फ़ोलिक अम्ल बी 12 के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर काम करता है। दोनों में से एक की भी कमी रक्त-निर्माण में बाधक है। नतीजन रोगियों को थकान , कमज़ोरी , कार्य-अक्षमता -जैसे लक्षणों से सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा फ़ोलिक अम्ल का एक विशिष्ट काम माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण के तन्त्रिका-तन्त्र को विकसित करना भी है। ऐसे में गर्भिणी के शरीर में इस विटामिन की कमी बड़े विकार पैदा कर सकती है , जिन्हें न्यूरल-ट्यूब-विकृतियों के नाम से जाना जाता है। तमाम अन्य बीमारियों में फ़ोलिक अम्ल पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। ख़ून के नमूनों में लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर मौजूद इस विटामिन की मात्रा से डॉक्टर आपके शरीर में इसका स्तर का ज्ञान पाते हैं। ( यहाँ यह ध्यान दीजिएगा कि अन्य तत्त्वों की जानकारी ख़ून के तरल भाग में सीधे उनकी मात्रा से होती है , जबकि फ़ोलिक अम्ल को ख़ून की एक कोशिका-विशेष के भीतर नापा जाता है। )

'शोले' फ़िल्म में आपको वीरू और जयदेव की जोड़ी याद होगी। अगर बी 12 वीरू है , तो फ़ोलिक अम्ल जयदेव। वह बी 12 से अधिक ताप-संवेदनशील है और मन से अधिक हरा-भरा भी। मौसी की लड़की से अपने मित्र की बात करते समय वह उसकी कमियाँ ढाँपता है। फ़ोलिक अम्ल का प्रचुर सेवन करने से भी कई बार वयस्क-शरीर में विटामिन बी 12 की अल्पता छिप जाती है और पकड़ में नहीं आती। कैसे होता यह , इसे समझिए।

मान लीजिए कि किसी वयस्क के शरीर में इन दोनों विटामिनों बी 12 व फ़ोलिक अम्ल की कमी है , जिसके कारण उसके रक्त अल्प है और तन्त्रिका-तन्त्र में समस्याएँ हैं। ऐसे में अगर रोगी केवल फ़ोलिक अम्ल ( बाहर से ) भोजन या गोलियों के रूप में ले , तो उसके ख़ून की बड़ी-बड़ी मेगैलोब्लास्ट कोशिकाएँ तो सामान्य आकार की हो जाएँगी , लेकिन तन्त्रिका-तन्त्र की दिक़्क़तें जस-की-तस बनी रहेंगी। ऐसे में सामने वाले चिकित्सक को यह लगेगा कि जब ख़ून की कोशिकाएँ सामान्य आकार-आकृति की हैं और केवल तन्त्रिका-तन्त्र की समस्या है तो शायद यह किसी अन्य कारण से है। इस तरह विटामिन बी 12 की कमी पर से उनका ध्यान हटने की आशंका रहेगी। 

केवल ख़ून की कोशिकाओं के आकार से डॉक्टर ( पैथोलॉजिस्ट ) को धोखा हो जाएगा ! जहाँ जन्तु-उत्पादों के सेवन से बी 12 की प्राप्ति होती है , वहीं हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ व फल-इत्यादि के सेवन से फ़ोलिक अम्ल की पूर्ति होती रहती है। इन दोनों विटामिनों के महत्त्व को विलग करके नहीं देखा जा सकता। संग-संग इन्हें लेने से ही आम जन का समुचित रक्त व तन्त्रिका-विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

Monday, June 3, 2019

कहीं आप प्रोस्टेट-कैंसर की तरफ तो नहीं बढ़ रहे ?

प्रोस्टेट कैंसर को जानिए 

पुरुषों में होने वाले कैंसरों में प्रोस्टेट-कैंसर का नाम प्रमुख है। अखरोट के आकार की प्रोस्टेट-ग्रन्थि का काम अपने स्रावों द्वारा शुक्राणुओं को आहार व गति प्रदान करना होता है।

प्रोस्टेट-कैंसर आरम्भ में इसी ग्रन्थि तक सीमित रहता है ,किन्तु बाद में आसपास के व दूर के अंगों में फैल भी सकता है। उम्र बढ़ने के साथ इसकी आशंका बढ़ती है। मोटापे से भी इसका सम्बन्ध पाया गया है और कई बार आनुवंशिकी( जेनेटिक्स ) के कारण एक ही परिवार के कई पुरुषों में यह हो सकता है।

पेशाब की धार का पतला होना अथवा पेशाब करने में असमर्थता इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। वीर्य में खून आना , शिश्न के स्तम्भन में समस्या , कमर के नीचे के इलाक़े में अथवा हड्डियों में दर्द भी कई बार देखने को मिल सकता है।

यद्यपि यह रोग किसी भी पुरुष में हो सकता है , लेकिन कुछ क़दम हम इससे बचने के लिए उठा सकते हैं। ताज़े फलों-सब्ज़ियों का सेवन , खाद्य-सप्लीमेंटों से दूर रहना , कसरत करना व वज़न नियन्त्रित रखना एवं कोई भी ऊपर बताये गये लक्षणों के होने पर डॉक्टर से मिलना ही इस रोग के विरोध में समय रहते उठाये गये उचित क़दम हैं।

डॉक्टर इस रोग की पुष्टि के लिए कई जाँचें करते हैं। उँगली को मलद्वार के रास्ते प्रवेश करके प्रोस्टेट को महसूस करना ( डिजिटल रेक्टल एग्ज़ामिनेशन ) इनमें महत्त्वपूर्ण है। फिर प्रोस्टेट स्पेसिफ़िक एंटीजन नामक जाँच भी ख़ून में करायी जाती है। आवश्यकतानुसार प्रोस्टेट की अल्ट्रासोनोग्राफ़ी एवं बायॉप्सी भी की जाती हैं। इन सब के बाद पुष्टि होने पर प्रोस्टेट-कैंसर का उपचार डॉक्टर आरम्भ करते हैं।

डॉ विवेकश्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन 7704996699

Sunday, June 2, 2019

कहीँ आप भी तो नहीं ले रहे एसिडिटी की दवा?

एसिडिटी की दवाओं का लम्बा सेवन आँतों को कर सकता है बीमार 

जब से एसिडिटी (अम्लीयता ) की प्रोटॉन-पम्प-इन्हिबिटर दवाओं ( ओमीप्रैज़ॉल-पैंटोप्रैज़ॉल वग़ैरह ) का चलन बढ़ा है , तब से मेडिकल जगत् का ध्यान इनके कारण पैदा होने वाली कई समस्याओं पर गया है। इन्हीं में से एक समस्या छोटी आँत में जीवाणुओं की संख्या अत्यधिक बढ़ जाना है , जिसे स्मॉल इंटेस्टाइनल बैक्टीरियल ओवरग्रोथ ( एसआईबीओ --- सीबो ) कहा गया है।

पाचन तन्त्र में जीवाणुओं की सर्वाधिक उपस्थिति बड़ी आँत और फिर मुँह में होती है। इन दोनों सिरों के बीच में पड़ने वाले आमाशय व छोटी आँत में जीवाणु कम होते हैं। कारण कई हैं। आमाशय में मौजूद अम्ल इन जीवाणुओं में से अधिकांश को मार देता है। इसी कारण मुँह से हम-आप जो कुछ भी खाते हैं , उसमें मौजूद अधिकतर जीवाणु आमाशय को पार ही नहीं कर पाते और वहीं नष्ट हो जाते हैं। इस कारण से छोटी आँत में जीवाणुओं की संख्या काफ़ी कम होती है।

लेकिन क्या हो अगर आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल कम बनने लगे ?
या दवाएँ खाकर हम उसका उत्पादन कम कर दें ?
या हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र कमज़ोर हो जाए ?
या आँतों की मांसपेशीय चाल ( फैलना-सिकुड़ना ) कम पड़ने लगे ?
या छोटी आँत और बड़ी आँत जहाँ मिलते हैं , उस स्थान से जीवाणु किसी कारणवश बड़ी आँत से छोटी आँत में आकर बसने लगें ?
तब क्या होगा ?
इन घटनाओं के कारण छोटी आँत में बढ़ी जीवाणुओं की आबादी हमारे पाचन पर क्या प्रभाव डालेगी ?

ग़ौरतलब बात यह है कि छोटी आँत में आवश्यकता से अधिक बढ़े जीवाणु पाचन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। नतीजन व्यक्ति में तरह-तरह के लक्षण पैदा होंगे। पेट फूलना , डकार आना , मलद्वार से अधिक हवा निकलना , पेटदर्द , दस्त व वज़न में गिरावट सभी देखे जा सकते हैं। ध्यान रहे , यद्यपि ये लक्षण केवल छोटी आँत में जीवाणुओं के बढ़ने से ही नहीं पैदा होते , लेकिन जीवाणुओं की बढ़ी हुई आबादी इन लक्षणों को किसी व्यक्ति में पैदा कर सकती है यह जानना ज़रूरी है। जीवाणुओं की इस बढ़ी हुई संख्या के कारण भोजन न ठीक से पचता है और न अवशोषित होता है। शरीर में खनिजों व विटामिनों की कमी होने लगती है। एंटीबायटिकों के समुचित प्रयोग एवं भोजन में पोषक-तत्त्व देकर गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजिस्ट मरीज़ों की इस बीमारी को ठीक करते हैं। साथ ही इस बात पर भी काम किया जाता है कि किस कारण से छोटी आँत में जीवाणुओं की आबादी बढ़ी। यदि सम्भव हुआ , तो उस मूल रोग का भी उपचार किया जाता है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा
हेल्पलाइन - 7704996699

Friday, May 31, 2019

तम्बाकू से पाना चाहते हैं छुटकारा तो अपनाएं ये तरीका

अगर आप भी उन लोगों में से हैं जो स्मोकिंग करते हैं तो आपको फिक्रमंद होने की जरुरत है। तम्बाकू और तम्बाकू से बने प्रॉडक्ट्स हमारे शरीर के लिए जहर की तरह हैं। रिसर्च के मुताबिक 1 सिगरेट पीने से जिंदगी के 11 मिनट कम हो जाते हैं। यही वजह है कि तम्बाकू सेवन के कारण दुनिया में हर 6 सेकंड में 1 मौत होती है। लंबे समय तक तम्बाकू का सेवन शरीर को खोखला कर देता है। यह वात, पित्त और कफ तीनों को बढ़ाता है। इसके कारण कैंसर, दिल से जुड़ी बीमारियां, अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, अल्सर आदि कई बीमारियां होती हैं। भारत में मुंह और गले के कैंसर का यह प्रमुख कारण है। दरअसल यह एक धीमा जहर है जो धीरे-धीरे इंसान की जिंदगी को मौत की तरफ धकेलता है।
झड़ते बालों से छुटकारा पाने के असरदार घरेलू उपाय।

हर साल तंबाकू की वजह से 70 लाख लोगों की मौत

WHO के आंकड़ों के मुताबिक़ तकरीबन 70 लाख लोग हर साल तम्बाकू के सेवन की वजह से असमय मौत का शिकार हो रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या ये है कि एक बार तंबाकू की की आदत हो जाने पर यह शरीर को खोखला करके ही छोड़ता है। तंबाकू में निकोटिन होता है जो हमारे नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है। इसे लेने से फौरी तौर पर तो राहत महसूस होती है लेकिन जल्द ही इसकी ऐसी लत लग जाती है कि फिर इसे छोड़ना बेहद मुश्किल हो जाता है। यही वजह है कि तम्बाकू का सेवन करने वाले ढेरों लोग चाहकर भी इसे छोड़ नहीं पाते। लेकिन आयुर्वेद में ऐसे कुछ उपाय है जिनकी मदद से तम्बाकू सेवन की आदत से छुटकारा मिल सकता है...

अजवाइन 

तम्बाकू के नशे से मुक्ति पाने में अजवाइन बेहद कारगर आयुर्वेदिक नुस्खा है। भुनी हुई अजवाइन खाने से तम्बाकू सेवन की बेचैनी धीरे-धीरे ख़त्म होती जाती है। इससे पाचन तंत्र को फायदा होता है और गैस, अपच आदि की समस्याओं में भी राहत मिलती है।
तंबाकू को ऐसे कहें नासकारात्मक रहेंप्लान बनाकर काम करेंखुद को व्यस्त रखेंउन चीजों से दूर रहें जो इसे बढ़ाती हैंलाइफस्टाइल बदलेंकुछ चीजों के लिए रहें तैयार

अदरक

तम्बाकू खाने की जब भी इच्छा बलवती हो जाए तब अदरक को मुंह में रखें और धीरे-धीरे उसे चूसते रहें। तम्बाकू खाने या धूम्रपान करने की इच्छा पर विराम लगेगा। इसके लिए अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े करके उसमें नींबू का रस और नमक मिलाकर धूप में सुखा लें। अदरक में सल्फर होता है जो इस लत को कम करने में मदद करते है।

शहद और नींबू

नींबू के रस में शहद मिलाकर पीने से तम्बाकू के नशे की तलब दूर होती है। नींबू-पानी से शरीर से नशीले पदार्थ भी बाहर निकलते हैं।

आंवला सौंफ और इलायची

आंवला, सौंफ और इलायची के चूर्ण का मिश्रण भी नशे की लत से छुटकारा पाने में बेहद उपयोगी है। सिगरेट या तम्बाकू खाने की जब भी इच्छा हो तब इन तीनों के चूर्ण की एक पुड़िया मुंह में रखें और धीरे-धीरे इसे चबाते रहें। कुछ दिन तक ऐसा करने से नशे की तलब ख़त्म हो जायेगी। साथ ही पेट के लिए भी यह फायदेमंद है। खट्टी डकार ,भूख ना लगना, पेट फूलने में आराम मिलता है।

तुलसी

आयुर्वेद में तुलसी का विशेष महत्व है। तम्बाकू से छुटकारा पाने में भी यह विशेष उपयोगी है। सिगरेट पीने या तंबाकू खाने का जब भी मन करे तो तुलसी का पत्ता चबाएं। सुबह और शाम तुलसी के 2-3 पत्ते चबाने से नशे की लत से छुटकारा मिल सकता है।
तंबाकू को ऐसे कहें नासकारात्मक रहेंप्लान बनाकर काम करेंखुद को व्यस्त रखेंउन चीजों से दूर रहें जो इसे बढ़ाती हैंलाइफस्टाइल बदलेंकुछ चीजों के लिए रहें तैयार

योग और व्यायाम

तम्बाकू की लत पड़ने पर, उसे छोड़ना आसान नहीं होता। इसके लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति और मानसिक दृढ़ता की जरुरत होती है। इसके लिए शरीर, मन और आत्मा का एक होना जरुरी होता है। इसके लिए योग से बेहतर कुछ भी नहीं है। शवासन से विशेष फायदा होता है। अनुलोम-विलोम भी उपयोगी है। योगासन के साथ-साथ शारीरिक व्यायाम भी करते हैं तो सोने पर सुहागा। यह तनाव को कम करता है।

शराब चीनी और कॉफी से दूरी

तम्बाकू छोड़ने का आपने निश्चय कर लिया है तो कुछ वक़्त तक शराब, चीनी और कॉफी से भी दूरी बनानी होगी। ये तीनों सिगरेट पीने की इच्छा को जागृत करते हैं।

शाकाहारी खाना

मांसाहरी और वसायुक्त खाना तम्बाकू से छुटकारा पाने की राह में बाधक है। इसमें मन का सात्विक होना जरुरी है और उसके लिए शाकाहारी भोजन जरूरी है। साथ ही पानी भी खूब पीना चाहिए। ताजा खाद्य पदार्थ खाएं और इसलिए आहार को लेकर बेहद अनुशासित होने की जरुरत है।

हर्बल चाय

हर्बल चाय पीने से भी तम्बाकू सेवन की इच्छा में कमी आती है। कैमोमाइल और ब्राह्मी मिश्रित हर्बल टी से काफी लाभ होता है।

अनानास हरड़ और लौंग

तम्बाकू खाने या धूम्रपान करने की जब भी इच्छा हो तो सूखे अनानास के एक या दो टुकड़े को शहद के साथ चबाएं। इससे फायदा होगा। भिगोकर रखी गई काली हरड़ को चूसने से भी फायदा होता है। लौंग चूसने से भी फायदा होगा।
लेकिन यह नुस्खे तभी काम आयेंगे जब तम्बाकू से छुटकारा पाने के लिए आप दृढ़ संकल्पित हो। यदि आपने एक बार पक्का इरादा कर लिया तो तम्बाकू के खिलाफ आधी जंग आप वैसे ही जीत जाते हैं।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा
www.jivakayurveda.com
Helpline: 7704996699

Saturday, March 16, 2019

World Sleep Day 2019: जानिए आपके लिए कितनी जरूरी है नींद, इन बातों का रखें ध्यान

World Sleep Day 2019 हर साल 15 मार्च को वर्ल्ड स्लीप-डे मनाया जाता है। वर्ल्ड स्लीप डे को वर्ल्ड स्लीप डे कमेटी ऑफ द वर्ल्ड स्लीप सोसाइटी द्वारा आयोजित किया जाता है। इसका उद्देश्य लोगों को नींद की समस्याओं के बोझ से छुटकारा दिलाना और नींद की गड़बडि़यों को लेकर लोगों को जागरूक करना होता है। इस साल वर्ल्ड स्लीप-डे का विषय ‘स्वस्थ नींद, स्वस्थ आयु’ है। वैसे तो नींद सभी को प्यारी होती है और इसके कई फायदे भी हैं। वर्ल्ड स्लीप-डे पर इससे जुड़ी कुछ जरूरी बातें बता रहे हैं जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव ।

नींद हमारे शरीर और मस्तिष्क दोनों के लिए प्रकृति का वरदान है। दौड़ती-भागती तनाव भरी जिंदगी में नींद का महत्व और बढ़ गया है। रोजाना की भागदौड़, आपाधापी के चक्कर में हम ठीक से खाना और सोना तक भूल गए हैं, जिसकी वजह से अनेक शारीरिक और मानसिक परेशानियां हमें घेरने लगी हैं। ट्रैफिक की रेडलाइट से लेकर मोबाइल पर बेकार के मैसेजेज, इंटरनेट और न जाने कितनी चीजें हमें व्यर्थ का तनाव देती हैं।

दिनभर की भागदौड़ के बाद हम थक कर घर वापस आते हैं तो हमें सुकून भरी और आरामदायक नींद की आवश्यकता होती है। रात में कम से कम 6 से 8 घंटे की नींद लेनी चाहिए, जिससे अगले दिन के कामकाज के लिए अपने मस्तिष्क को तरोताजा कर सकें। इस तरह से हम अपने जीवन का एक तिहाई हिस्सा सोने में बिता देते हैं, जो हमारी सेहत के लिए बेहद जरूरी होता है।

दो तरह की नींद 
हम दो तरह की नींद लेते हैं। एक वह नींद, जिससे हम शारीरिक रूप से ज्यादा क्रियाशील रहते हैं। इसमें हमारी आंखें हिलती-डुलती रहती हैं। इस नींद में जब हम कोई स्वप्न देखते हैं तो उसे याद रख पाते हैं। दूसरी तरह की नींद में हमारी शारीरिक क्रिया न्यूनतम होती है। इस समय हम गहरी नींद में होते हैं, जिससे शरीर और मस्तिष्क को ज्यादा आराम और सुकून मिलता है। इस चैनभरी नींद से एक तरह से हमारे शरीर का उपचार होता है। लोगों के सोने की आदत अलग-अलग किस्म की होती है। कुछ लोग लंबी नींद लेने में विश्वास रखते हैं, तो कुछ थोड़े समय की नींद लेते हैं। 6 घंटे की नींद लेने वाले व्यक्ति काफी चुस्त-दुरुस्त होते हैं, जबकि 9 घंटे और इससे ज्यादा लंबी नींद लेने वाले लोग नींद के आशक्त होते हैं।

नीद न आने वाली बीमारी (अनिद्रा) 
अनिद्रा एक नींद से सम्बन्धित समस्या है, जो दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करती है। संक्षेप में, अनिद्रा से पीड़ित व्यक्तियों के लिए नींद आना या सोते रहना मुश्किल होता है। अनिद्रा के प्रभाव बहुत भयंकर हो सकते हैं। अनिद्रा आमतौर पर दिन के समय नींद, सुस्ती, और मानसिक व शारीरिक रूप से बीमार होने की सामान्य अनुभूति को बढाती है। मनोस्थिति में होने वाले बदलाव (मूड स्विंग्स), चिड़चिड़ापन और चिंता इसके सामान्य लक्षणों से जुड़े हुए हैं। अनिद्रा में नींद से जुड़े विकारों की एक विस्तृत श्रृंखला है, जिसमें अच्छी नींद के अभाव से लेकर नींद की अवधि में कमी से जुडी समस्याएं हैं। अनिद्रा को आमतौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जाता है।

अस्थायी अनिद्रा: यह तब होती है, जब लक्षण तीन रातों तक रहते हैं।
एक्यूट अनिद्रा: इसे अल्पकालिक अनिद्रा भी कहा जाता है। लक्षण कई हफ्तों तक जारी रहते हैं।
क्रोनिक अनिद्रा: यह आमतौर पर महीनों और कभी-कभी सालों तक रहती है।

दिल के लिए है खतरनाक
नींद और हृदय गति का गहरा संबंध होता है। एक ताजा में शोध में यह बात सामने आयी है। हृदय रोगियों पर किए गए ताजा अध्ययन में पाया गया कि 96 फीसदी हृदय रोगियों में नींद के दौरान श्वसन संबंधी समस्या पाई जाती है। एक अन्य अध्ययन में यह बात साफ हुई थी कि 58 प्रतिशत हृदय रोगी नींद संबंधित समस्या से ग्रसित होते हैं और इनमें से 85 फीसदी को इस समस्या तथा हृदय रोग और नींद की कमी के संबंध का पता नहीं होता।