Thursday, June 27, 2019

आयुर्वेद में ही है कैंसर का इलाज़

कैंसर की चिकित्सा के दौरान जीवक आयुर्वेदा व मैने यह अनुभव किया कि 98% कैंसर के मरीज सर्वप्रथम अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के अनुसार ही अपना ईलाज करवाते हैं। जहाँ सर्वप्रथम उन्हें बहुत अधिक शक्तिशाली एवं भयंकर एन्टीबायोटिक दी जाती है ताकि जो रोग समझ में नहीं आ रहा है, उस पर किसी तरह विजय दिखाई जा सके। ये दवायें शरीर के अन्दर भूचाल ला देती हैं। त्रिदोषों में और अधिक असाम्यता पैदा हो जाती है तथा सबसे अधिक बुरा असर पहले से ही कुपित वात पर पडता है।

जब उन भयंकर एंटीबायोटिक इंजेक्शनों का सार्थक असर भी दिखाई नहीं पड़ता तब विभिन्न टेस्टों के माध्यम से कैंसर होने का सबूत इकट्ठा करते हैं और फिर कीमोथेरेपी, रेडियेशन एवं अन्य अति भयंकर चिकित्सा शुरू कर देते हैं। आप सभी जानते हैं कीमोथेरेपी / रेडिएशन थेरेपी में क्या होता है - इसमें कैंसर सेल्स को खत्म किया जाता है। कैंसर कोशिकाओं की एक सहज पहचान जो ये कीमोथेरेपी की दवायें करतीं हैं और पहचान कर उन्हें खत्म कर देतीं हैं, वह है - इनके एक से दो, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16,….…में बहुत तेजी से विभक्त होकर बढ़नें की प्रक्रिया । इस कीमोथेरेपी में बस यही एक पहचान है कि जो भी एक कोशिका विभक्त होकर दो कोशिकाओं के रुप में बनने की प्रक्रिया में है, उसे नष्ट कर देना है। (In cancer, the cells keep on dividing until there is a mass of cells.)

अरबों खरबों सेल्स मिलकर शरीरगत एक टिश्यू का निर्माण करते हैं। (Body tissues are made of billions of individual cells.)
This mass of cells becomes a lump, called a tumour.
Because cancer cells divide much more often than most normal cells, chemotherapy is much more likely to kill them.

In Cancer, the cells keep on dividing until there is a mass of cells.

This mass of cells becomes a lump, called a tumour.

चूंकि मज्जा धातु के अन्तर्गत ही कोशिकाओं का निर्माण होता है, अतः कीमोथेरेपी में Bone marrow tissues को असामान्य ढंग से नष्ट कर दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप मज्जागत वात अत्यन्त कुपित हो जाती है और शरीर में भयंकर, असहनीय, अन्तहीन और इलाज हीन दर्द शुरू हो जाता है। पूरा का पूरा वातवह संस्थान (Neuro System of the Body) छिन्न भिन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में केवल एक ही आयुर्वेदिक दवा काम कर सकती है और वह अश्वगंधा घृत,पुर्ननवा,हल्दी।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

गर्दन में दर्द (सर्वाइकल) कब क्यों कैसे ?

जोड़ों में दर्द एक बहुत ही आम मुद्दा बन गया है, इसका दोष हमारी जीवनशैली या व्यस्त कार्यक्रम पर है। हम अक्सर अपने शरीर की मांगों को अनदेखा करते हैं; परिणामस्वरूप, स्वास्थ्य सम्‍मिलित हो जाता है। घुटने, पीठ, कंधे या गर्दन में दर्द वे सभी लक्षण हैं जिनके माध्यम से हमारा शरीर हमें बताता है कि हमें अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इन दर्द में से, गर्दन में दर्द कई लोगों की समस्या है। गर्दन शरीर का हिस्सा है जो सिर का समर्थन करता है और सिर को किसी भी तरह की गति के लिए अनुमति देता है। गर्दन में दर्द न केवल गर्दन को प्रभावित करता है बल्कि यह कभी-कभी शरीर के अन्य अंगों जैसे सिर, माथे और बाहों को प्रभावित करता है जिससे दर्द असहनीय हो जाता है। गर्दन के दर्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए और व्यक्ति को गंभीर होने से पहले ही उपचार कर लेना चाहिए। गर्दन के दर्द के कारणों और लक्षणों को जानना भी बहुत जरूरी है।

गर्दन के दर्द के लक्षण:

गर्दन दर्द के लक्षण हैं: गर्दन में गंभीर दर्द होना या उल्टी होना। हाथ या हाथ हिलाने में असमर्थता होना। गर्दन में दर्द होना या गांठ का अहसास होना। बुखार में गले में दर्द होना। गर्दन में दर्द होना या हाथ में कमजोरी  गर्दन के दर्द के कारण गर्दन में दर्द विभिन्न कारणों से हो सकता है;
1) गर्दन में दर्द का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण मांसपेशियों में खिंचाव या मोच के कारण होता है। यह गलत स्थिति में सोने, गर्दन की खराब मुद्रा, गर्दन में झटका, किसी भी गतिविधि, डेस्क पर काम करने या लंबे समय तक कंप्यूटर पर काम करने जैसे कारणों के कारण हो सकता है। गर्दन में खिंचाव मूल रूप से गर्दन की खराब मुद्राओं के कारण होता है जिसे हमारी जीवनशैली या किसी विशेष आदत पर दोष दिया जा सकता है।

 2) एक चोट या दुर्घटना जो गर्दन को नुकसान पहुंचाती है, गर्दन में दर्द का कारण हो सकती है।

 3) मेनिनजाइटिस एक चिकित्सा स्थिति है जो अक्सर कठोर गर्दन की ओर ले जाती है।

 4) बहुत सारी चिकित्सा स्थितियां हैं जो गर्दन के पुराने दर्द का कारण बनती हैं; रुमेटीइड गठिया, ऑस्टियोपोरोसिस, स्पाइनल स्टेनोसिस, सर्वाइकल स्पोंडोलिसिस, डिस्क हर्नियेशन। गर्भाशय ग्रीवा के कशेरुकाओं को प्रभावित करने वाली ये चिकित्सा स्थितियां गर्दन में दर्द की ओर ले जाती हैं।

आमतौर पर लोग गर्दन के दर्द को गंभीरता से नहीं लेते हैं जब तक कि यह गंभीर न हो जाए। वरना लोग दर्द निवारक के माध्यम से गर्दन के दर्द का समाधान पाने की कोशिश करते हैं। हालांकि यह गर्दन के दर्द से निपटने का सही तरीका नहीं है। अगर आपकी गर्दन में दर्द लगातार समस्या बन गया है, तो उचित उपचार करना बेहतर है।

गर्दन के दर्द के लिए आयुर्वेदिक उपचार बहुत सकारात्मक साबित होता है क्योंकि आयुर्वेद दर्द के मूल कारण को समझकर किसी भी दर्द की समस्या से निपटता है। आयुर्वेद में, गर्दन का दर्द ऐसी स्थिति है जो गर्दन क्षेत्र में उत्तेजित वात दोष के कारण उत्पन्न होती है।

गर्दन के दर्द के आयुर्वेदिक उपचार में निम्न तरीके शामिल हैं: 

कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों से बनी दवाओं में से कुछ रसना, अश्वगंधा, दशमूल हैं। ये दवाएं प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बनाई जाती हैं। बिमार दर्द से पीड़ित व्यक्ति को विभिन्न आयुर्वेदिक उपचार दिए जाते हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य दर्द को सुखदायक तरीके से दूर करना है। ये थैरेपी हैं शिरोधारा, शिरोबस्ती अभ्यंगम, ग्रीवा वस्ती और नस्यम.कुछ आयुर्वेदिक उपचार में  आहार प्रबंधन और व्यायाम भी शामिल है जो तनाव को दूर करने में मदद करता है जो शरीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

डॉ. विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 


हेल्पलाइन: 7704996699

Friday, June 21, 2019

चमकी बुखार का कहर आयुर्वेद करेगा असर...

देश में कई जगह एवं विशेष रूप से बिहार में दिमागी  बुखार / चमकी बुखार अपने प्रचंड रुप में सैकड़ों लोगों की मौत का कारण बन गया है। सम्पूर्ण एलोपैथी चिकित्सा पद्धति ने अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को भी आना पड़ा पर रिजल्ट ?

आयुर्वेदज्ञों को आगे आ कर मानवता के हित में काम करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है। मुझे लगता है निम्नलिखित इलाज प्राण रक्षा करने में समर्थ होगा :-
*शहद के साथ दालचीनी का पाउडर - चार वक्त
* महा सुदर्शन घन बटी + स्वर्ण बसंत मालती रस + अमृतारिष्ट - दो वक्त
* लवंग + कज्जली + शहद - तीनों वक्त
* हरताल गोदंती भस्म + मोती पिष्ठी + प्रवाल पिष्ठी - तीन बार चन्दनादि तेल लगाने हेतु।

कोई सामान्य व्यक्ति वगैर आयुर्वेदज्ञों की सलाह व उचित देखरेख के बिना इस फार्म्यूलेशन का प्रयोग न करे। आप सभी विद्वान आयुर्वेदज्ञों से अनुरोध है कि यदि आप अपना अनुभव शेयर करें तो बहुत कृपा होगी।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा


हेल्पलाइन: 7704996699

Thursday, June 13, 2019

बच्चों को कब और कैसे दें लीची?

लीची और इसके कारण बच्चों में उत्पन्न होने वाले लक्षणों पर और काम किये जाने की आवश्यकता विशेषज्ञ बताते हैं, लेकिन कुछ बातें 2017 से वैज्ञानिक सामने लाये हैं। लीची में कुछ ख़ास रसायन होने के बाबत द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ जर्नल में एक विशिष्ट शोध छपा था। इस फल में हायपोग्लायसिन ए एवं मेथिलीन सायक्लोप्रोपाइल ग्लायसीन होते हैं, जो कुपोषित बच्चों के ख़ून में शर्करा का स्तर बहुत घटा सकते हैं। ऐसा बहुधा तब होता है , जब ये बच्चे शाम को भोजन नहीं करते और सुबह लीची के बाग़ों से गिरे हुए फल उठाकर खा लेते हैं।

यह शोध सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल , संयुक्त राज्य अमेरिका और नेशनल सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल , भारत के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से किया गया और तब यह निष्कर्ष पाया गया। एक बात जो और खुली , वह यह कि अनपकी-अधपकी लीचियों को खाने पर यह समस्या अधिक होती है , क्योंकि इन फलों में ये रसायन अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। वैज्ञानिकों-डॉक्टरों के अनुसार समस्या लीची का फल नहीं है , समस्या है कुपोषित रात से भूखे बच्चों का सीधे सुबह लीची खा लेना। लगभग सभी मरने वाले बच्चों के रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर अत्यधिक न्यून पाया जाता है।

इस शोध के साथ एक अन्य इतर बात जो बांग्लादेशी वैज्ञानिकों द्वारा सामने लायी गयी है , वह लीची की खेती के लिए प्रतिबन्धित एंडोसल्फान व अन्य कीटनाशकों का प्रयोग है। कई वैज्ञानिकों का कहना है कि निर्धन तबके के ये बच्चे लीचियों को बिना धोये दाँतों से छीलकर खाते हैं , जिससे उनके शरीर में एंडोसल्फान जैसे रसायन प्रवेश कर जाते हैं।

अब तक दो बातें स्पष्ट हैं : फलों को अच्छी तरह धोकर व छीलकर खाया जाए और भूखे बच्चों को सुबह सीधे खाने को लीचियाँ न दी जाएँ। अन्यथा रक्त में शर्करा-स्तर गिरने से बच्चे बीमार पड़ सकते हैं। आगे जितना ज्ञान हमें इस रहस्यमय रोग के विषय में अधिक होता रहेगा , उतने उचित व सार्थक क़दम हम उठा पाएँगे।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

अप्राकृतिक भोजन और स्वस्थ्य एक साथ संभव नहीं

असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||
अर्थात् : हे महाबाहो !
निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

अप्राकृतिक भोजन से आनन्द नहीं निकलता कोई बात नहीं। अब अगला अप्राकृतिक भोजन ढूँढ़ते हैं , शायद वहाँ आनन्द मिले।
पुराने ग्रन्थ जनक को विदेह कहते हैं। विदेह होने का# अर्थ देह से अलग होना या मरना नहीं होता। देह से अलग होने का अर्थ होता है , दैहिक इच्छाओं का ग़ुलाम न होना। रसगुल्ला मिला तो ठीक , न मिला तो भी कोई बात नहीं। एसी चला तो भी सो लेंगे , न चला तो भी नींद तो आएगी ही। लेकिन बाज़ार ने सतत कोशिशें कीं ताकि हमारी सारी कामेच्छाएँ ( वॉन्ट ) हमारी आवश्यकताओं ( नीड ) में बदलती चली जाएँ। सांख्य योग और गीता जब मन को दुनिग्रही बताते हैं , तो उसपर पड़ने वाले डोपामीनी प्रभाव की ही बात कर रहे होते हैं। वह जो किसी नशेड़ी सारथी की तरह है , जिसके कारण इन्द्रियों के पाँचों घोड़े बेलगाम हो जाते हैं।

अब ग्लोबल बिज़नेस वाले अंकलजी नया ज्ञान लेकर मार्केट में आये हैं और लोग उसपर झूम रहे हैं : लूज़ कंट्रोल , इंडल्ज , ड्रूल , मन ललचाये , रहा न जाए , नो वन कैन ईट जस्ट वन , ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा , छड्ड दुनिया को दुनिया तो देगी ज्ञान। अब चाहे इससे शरीर की ऐसी-तैसी हो , चाहे समूचे पर्यावरण की !

काम को इसलिए हमें दिया कुदरत ने ताकि हम निर्मिति-रत रहें। निर्माण तब तक जारी रहे , जब तक मौत न आ जाए। निर्माण केवल यौन-कर्म से ही नहीं होता , सेक्स से ही हम सन्तान नहीं पैदा करते। जो कुछ भी हमारे द्वारा सृजित किया जाता है , वह सब हमारी निर्मिति है। हमारी हर सर्जना जीव-पर्यन्त जारी रहे और निर्माण में बदले , दुर्भाग्य यह कि बाज़ारवाद-भोगवाद ने इस रासायनिक आशान्वयन को ही हमारी सबसे बड़ी रासायनिक कमज़ोरी में बदल दिया।

मिठाइयाँ केवल दीवाली-होली खायी जाती थीं , अन्य बड़े सुखों का जन-सामान्य के लिए टोटा था। राजे-महाराजे ही थे , जो रात-दिन डोपामीनी कुण्ड में गोते लगाया करते थे। फिर सामन्तवाद ने पूँजीवाद को स्थान दिया और तब मशीनों ने मॉर्केट बनाते हुए भोग को सर्वसुलभ कर दिया। एक सीमा तक यह आवश्यक और ठीक था : रोटी , कपड़ा , मकान , स्वास्थ्य , शिक्षा , नौकरी और थोड़ा मनोरंजन सबको मिले , यह ज़रूरी है। लेकिन फिर मनोरंजन ने अन्य सभी को ठेलकर किनारे कर दिया और व्यक्ति मनोरंजनी-मात्र बनकर रह गया। इतना कि उससे मनोरंजन के वादे पर आप सारी मौलिक आवश्यकताओं से उसका ध्यान हटा सकते हैं।

लड़के को स्मार्टफ़ोन मिल गया , वह पॉर्न देख रहा है। अब समझाते रहिए उसे कि पढ़ लो। डोपामीन पुरस्कार की ऐसी उम्मीद जगा चुका है , कि लड़का उसके तिलिस्म से निकल ही नहीं पा रहा। शराब और धुएँ का सेवन पहले कम था , अब बढ़ चला है। आउटिंग पहले कम होती थी , अब ख़ूब-ख़ूब होती है। उम्मीद लिए मानवों के ढेर बाज़ारों में आनन्द की तलाश में भटकते हैं। अब करते रहिए कोशिश दीर्घकालिक प्रेम , पीढ़ियों की सुरक्षा , स्वास्थ्य-जैसे लम्बे निवेशी मुद्दों की --- सुनने वाले आपको कम ही मिलेंगे।

अप्राकृतिक भोजन से स्वाद मिलेगा तो आनन्द मिल सकता है --- व्यक्ति मन को समझा रहा है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन :7704996699

धूमपान से भी ख़तरनाक होता जा रहा है मोटापा

सिर्फ धूमपान छोड़ने और मोटापा घटाने-भर से भी आप अपने जीवन में कुछ साल और ढेर सारी खुशियाँ जोड़ सकते हैं।

धूमपान से केवल कैंसरों की ही नहीं पनपते , कई अन्य रोगों की आशंका भी धुएँ के कारण बढ़ जाती है। यही नहीं जो लोग सिगरेट-बीड़ी पीने वालों के साथ रहते हैं और परोक्ष रूप से उनका निकाला धुआँ भीतर लेते हैं , वे भी कई बार ढेरों बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। धुएँ में अनेक रसायन होते हैं , जिनसे मानव-शरीर पर ढेरों हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं। लेकिन अब दिलचस्प बात जो सामने आ रही है , वह यह कि मोटापे की तुलना में धूमपान कहाँ ठहरता है।

मोटापा संसार-भर में महामारी के रूप में फैलता जा रहा है। लोग आवश्यकता से अधिक खा रहे हैं और अधिकांश इस विषय में जागरूक भी नहीं। घर में खाना न बनाना , बार-बार आउटिंग करना या खाना ऑर्डर करना , स्वाद को पोषण पर तरजीह देना --- इन आदतों से वे ढेरों बीमारियों को रोज़ न्यौता दे रहे हैं। मोटापे से केवल हृदय-रोग , स्ट्रोक , डायबिटीज़ और घुटनों के गठिया का ही सम्बन्ध नहीं है , मोटापा स्वयं कई कैंसरों को जन्म देने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। कुछ ही समय में स्थिति यह आने वाली है जब मोटापा रोगकारक और मृत्युकारक के रूप में धूमपान को भी पीछे छोड़ देगा।

अगर आप धुएँ को पी रहे हैं , तो इसे तत्काल छोड़िए। इससे आपको जीवन के कुछ और वर्ष मिलेंगे। धूमपान को किसी भी रूप में महिमामण्डित करने और सुनने से बचिए --- यह केवल स्वयं को भुलावे और भ्रम में रखना है। फलों और सलाद का सेवन बढ़ाइए , वज़न घटाइए। कसरत नित्य करिए और जंक-भोजन से जितना हो सके , दूर हो जाइए।

दुनिया-भर में जागरूकता के कारण धूमपान घट रहा है , लेकिन जीभ की तलब के कारण मोटापा बढ़ रहा है। यह एक ख़तरे को छोड़कर दूसरे को अपनाने जैसा है। जिस तरह से धूमपान के विरोध में अभियान चलाये जाते हैं , उससे कहीं सक्रियता से हमें मोटापे और जंक-भोजन के खिलाफ अभियान छेड़ने की आवश्यकता है।
( चित्र में दिखाया ग्राफ़ अमेरिकी आँकडों को प्रदर्शित कर रहा है। हम अमेरिका की नकल करते हैं, मौलिक सोचते नहीं। )

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
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Saturday, June 8, 2019

मोटापा घटाना है तो लें कीटो आहार..

कीटो आहार का कॉन्सेप्ट नया नहीं है। पुराने समय में इसे डॉक्टर ( बच्चों के ) मिर्गी के दौरों को नियन्त्रित करने के लिए इस्तेमाल करते आये हैं। लेकिन आज जब मोटापा एक महामारी का रूप ले चुका है , तब इस आहार को हमें दोबारा थोड़े विस्तार से समझना आवश्यक हो जाता है।

सवाल है कि क्या मोटापा घटाने में कीटो-आहार उपयोगी है ? उत्तर है कि हाँ , लघु-मध्यम समय के लिए इस तरह का भोजन मोटापे को कम करने में निश्चित तौर पर मददगार है। लेकिन इस आहार के दीर्घकालिक प्रभाव मनुष्य के शरीर पर क्या होंगे , यह अभी हमें ठीक से नहीं पता।

मानव-मस्तिष्क ऐसा अंग है , जो ऊर्जा के लिए ग्लूकोज़ का इस्तेमाल करता है , वसा का नहीं। मस्तिष्क और रक्तसंचार के बीच एक अवरोध यानी बैरियर होता है , जिसे ब्लड-ब्रेन-बैरियर कहा जाता है। ग्लूकोज़ के अणु इस बैरियर को आसानी से पार कर के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ इस ग्लूकोज़ को रासायनिक अभिक्रियाओं के तोड़ा जाता है और इससे ऊर्जा पैदा की जाती है।

लेकिन क्या हो अगर कोई बीस ग्राम प्रतिदिन से कम ग्लूकोज़ ( यानी कार्बोहाइड्रेट ) खाने लगे ? व्रत रखता हो ? अनशन या भूख हड़ताल पर रहा करता हो ? ऐसे में मस्तिष्क को समुचित मात्रा में ग्लूकोज़ न मिल सकेगा। तब फिर शरीर अपने भीतर भाण्डारित प्रोटीनों और वसाओं से ग्लूकोज़ बनाने की पहले कोशिश करेगा। इस प्रक्रिया को ग्लूकोनियोजेनेसिस कहा जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया के भी काम नहीं चलता , क्योंकि भोजन में कार्बोहाइड्रेट का स्तर काफ़ी कम किया जा चुका है। तब फिर ?

तब वह शरीर में भाण्डारित वसा को ऊर्जा पैदा करने के लिए वसीय अम्लों में तोड़ेगा। लेकिन वसीय अम्ल ब्लड-ब्रेन-बैरियर के पार जा नहीं सकते। फिर ? ऐसे में तब वसीय अम्लों को तोड़कर कीटोन-बॉडी बनायी जाएँगी। ये कीटोन-बॉडी ब्लड-ब्रेन-बैरियर पार करने में सक्षम हैं और इनसे मस्तिष्क को ऊर्जा मिल सकेगी। इस तरह से ये कीटोन-बॉडी ग्लूकोज़ का स्थान ले लेंगी और अब मस्तिष्क इनसे ऊर्जा प्राप्त करेगा।

कीटोनों का ग्लूकोज़ की कमी में होने वाला यह शारीरिक निर्माण कीटोसिस कहलाता है। वज़न कम करने के अलावा कीटो-आहार खाने से कई अन्य लाभ भी लोगों ने पाने के दावे किये हैं। लेकिन अभी कुछ भी दीर्घकालिक पुख़्ता तौर पर कहा नहीं जा सकता है।

कीटो-आहार के पीछे दो बातों को और समझना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों हम सभ्यता के तौर पर विकसित हुए हैं , अधिकाधिक प्रोसेस्ड भोजन विशेषरूप से चीनी-मैदा जैसे कार्बोहाइड्रेटों की तरफ़ आये हैं। प्राचीन मानव की तुलना में आज का मानव अधिक कार्बोहाइड्रेट खाता है और उसी को मोटापा से जूझना भी पड़ रहा है। जंगली मनुष्य ( कृषि से पहले ) अधिकाधिक प्रोटीन और वसा पर ही निर्भर रहा करता था और स्वस्थ रहता था। फिर दूसरी बात लगातार खाते रहने की है। आजकल जहाँ आहारिकी कई बार एक दिन में कई छोटे-छोटे आहारों की बात करती आयी है , वहाँ शरीर के भीतर कभी भूख का या फिर ग्लूकोज़ीय रिक्तता का एहसास ही नहीं होता। ठीक से भूख लगी भी नहीं होती और लोगों को खाना मिल जाता है। कीटोन-उत्पादन के पीछे वह पुरानी किन्तु कारगर सोच भी है कि दो या एक समय भोजन करो। चौबीस घण्टों में हमेशा खाते न रहो। व्रत-उपवास इच्छाशक्ति का इम्तेहान तो हैं ही , कीटोन-उत्पादन के कारण वज़न भी नियन्त्रित रखते हैं।

लेकिन कीटो-आहार सबके लिये नहीं है। सभी अगर कार्बोहाइड्रेट छोड़कर वसा प्रचुर भोजन प्रोटीन सहित खाने लगें , तो समस्या भी आ सकती है। ऐसे में अपने शरीर की स्थिति को समझा जाए। बीमारियों के सन्दर्भ में डॉक्टर और डायटीशियन से बात की जाए। उसके बाद ही कीटो-आहार के पक्ष-विपक्ष में निर्णय लेना सही है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन : 7704996699

Friday, June 7, 2019

विटामिन बी 12 और फ़ोलिक अम्ल ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे !

2016 में भारत-सरकार ने भोजन में प्रयुक्त होने वाले अनाज ( विशेष रूप से गेहूँ ) के विटामिनों और खनिजों से संवर्धन के लिए मानक ड्राफ़्टों का प्रकाशन किया। यूनिसेफ़ और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएँ दशकों से इस बात पर बल दे रही हैं कि कुपोषण से निपटने के लिए बहुतायत में इस्तेमाल होने वाली खाद्य-वस्तुओं को सरकारें पहल करते हुए विटामिन-खनिज-पदार्थों से संवर्धित करे।

आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा रोग से बारे में बहुत से लोग परिचित हैं। लेकिन आयोडीन की ही तरह भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या में लोहे , जस्ते , विटामिन ए , डी और फ़ोलिक अम्ल की कमियाँ भी ख़ूब देखने को मिलती हैं।

बचपन में डालडा का पीला डिब्बा सबको याद होगा , जो विटामिन ए और डी से संवर्धित रहा करता था। आज-कल बिक रहे तमाम तेलों में से किसी में भी ये तत्त्व शामिल नहीं रहते। इस विषय में फ़ूड स्टैंडर्ड्स सेफ़्टी अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया व खाद्य-तेल-उद्योग के बीच मतभेद रहे हैं। तेल-उद्योग का कहना है कि भारतीयों की चूँकि आदत तेल को पका कर इस्तेमाल करने की है , इसलिए उसमें विटामिन ए और डी का संवर्धन बेकार है। पकाने-खौलाने से वे नष्ट हो जाएँगे और किसी का भला नहीं होगा। उलटे संवर्धन के लिए जनता को अपनी जेब थोड़ी और ढीली करनी पड़ेगी।

भोज्य-पदार्थों के संवर्धन पर चर्चा फिर कभी होगी। आज बात उस तत्त्व की , जो लोहे और आयोडीन से कम आवश्यक नहीं और उसके संवर्धन के बारे में भी विचार किया जा रहा है। पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के बाद उस तत्त्व को जानना और भी आवश्यक हो जाता है। उसका नाम फ़ोलिक अम्ल या फ़ोलेट है। विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स का सदस्य होने के कारण इसे विटामिन बी 9 के नाम से भी जाना जाता है। शस्य के साथ श्यामल को इस्तेमाल भारतीय जन सहज ही कर लेते हैं।

'शस्य-श्यामलाम्' विशेषण बंकिमचन्द्र से लेकर आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आपको जगह-जगह मिलता है। 'शस्य' जहाँ नवपरिवर्धित धान्य-इत्यादि के लिए प्रयुक्त होता है , वहीं 'श्यामलता' कालेपन की परिचायक है। और यहाँ यह बात मन में बैठा लेनी ज़रूरी है बिना श्यामलता के शस्यता का कोई महत्त्व नहीं।

गहरे रंग की ये साग-सब्ज़ियाँ फ़ोलिक अम्ल का एक प्रचुर स्रोत हैं। ( 'फ़ोलेट' शब्द ही लैटिन के 'फ़ोलियम' से बना है , जिसका अर्थ पत्ती होता है। ) इसके अलावा मांसाहार , दूध व दुग्ध-उत्पाद , फल व समुद्री भोजन में भी उसकी समुचित मात्रा पायी जाती है। यहाँ साथ में ध्यान देने वाली बात यह भी है सब्ज़ियों और अन्य आहारों को गरम करने व पकाने से फ़ोलिक अम्ल की बहुत बड़ी मात्रा नष्ट हो जाती है।

पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के समय आपको मेगैलोब्लास्टिक अनीमिया याद होगा। रक्त कोशिकाओं के सम्यक् विकास के लिए फ़ोलिक अम्ल बी 12 के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर काम करता है। दोनों में से एक की भी कमी रक्त-निर्माण में बाधक है। नतीजन रोगियों को थकान , कमज़ोरी , कार्य-अक्षमता -जैसे लक्षणों से सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा फ़ोलिक अम्ल का एक विशिष्ट काम माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण के तन्त्रिका-तन्त्र को विकसित करना भी है। ऐसे में गर्भिणी के शरीर में इस विटामिन की कमी बड़े विकार पैदा कर सकती है , जिन्हें न्यूरल-ट्यूब-विकृतियों के नाम से जाना जाता है। तमाम अन्य बीमारियों में फ़ोलिक अम्ल पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। ख़ून के नमूनों में लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर मौजूद इस विटामिन की मात्रा से डॉक्टर आपके शरीर में इसका स्तर का ज्ञान पाते हैं। ( यहाँ यह ध्यान दीजिएगा कि अन्य तत्त्वों की जानकारी ख़ून के तरल भाग में सीधे उनकी मात्रा से होती है , जबकि फ़ोलिक अम्ल को ख़ून की एक कोशिका-विशेष के भीतर नापा जाता है। )

'शोले' फ़िल्म में आपको वीरू और जयदेव की जोड़ी याद होगी। अगर बी 12 वीरू है , तो फ़ोलिक अम्ल जयदेव। वह बी 12 से अधिक ताप-संवेदनशील है और मन से अधिक हरा-भरा भी। मौसी की लड़की से अपने मित्र की बात करते समय वह उसकी कमियाँ ढाँपता है। फ़ोलिक अम्ल का प्रचुर सेवन करने से भी कई बार वयस्क-शरीर में विटामिन बी 12 की अल्पता छिप जाती है और पकड़ में नहीं आती। कैसे होता यह , इसे समझिए।

मान लीजिए कि किसी वयस्क के शरीर में इन दोनों विटामिनों बी 12 व फ़ोलिक अम्ल की कमी है , जिसके कारण उसके रक्त अल्प है और तन्त्रिका-तन्त्र में समस्याएँ हैं। ऐसे में अगर रोगी केवल फ़ोलिक अम्ल ( बाहर से ) भोजन या गोलियों के रूप में ले , तो उसके ख़ून की बड़ी-बड़ी मेगैलोब्लास्ट कोशिकाएँ तो सामान्य आकार की हो जाएँगी , लेकिन तन्त्रिका-तन्त्र की दिक़्क़तें जस-की-तस बनी रहेंगी। ऐसे में सामने वाले चिकित्सक को यह लगेगा कि जब ख़ून की कोशिकाएँ सामान्य आकार-आकृति की हैं और केवल तन्त्रिका-तन्त्र की समस्या है तो शायद यह किसी अन्य कारण से है। इस तरह विटामिन बी 12 की कमी पर से उनका ध्यान हटने की आशंका रहेगी। 

केवल ख़ून की कोशिकाओं के आकार से डॉक्टर ( पैथोलॉजिस्ट ) को धोखा हो जाएगा ! जहाँ जन्तु-उत्पादों के सेवन से बी 12 की प्राप्ति होती है , वहीं हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ व फल-इत्यादि के सेवन से फ़ोलिक अम्ल की पूर्ति होती रहती है। इन दोनों विटामिनों के महत्त्व को विलग करके नहीं देखा जा सकता। संग-संग इन्हें लेने से ही आम जन का समुचित रक्त व तन्त्रिका-विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

Monday, June 3, 2019

कहीं आप प्रोस्टेट-कैंसर की तरफ तो नहीं बढ़ रहे ?

प्रोस्टेट कैंसर को जानिए 

पुरुषों में होने वाले कैंसरों में प्रोस्टेट-कैंसर का नाम प्रमुख है। अखरोट के आकार की प्रोस्टेट-ग्रन्थि का काम अपने स्रावों द्वारा शुक्राणुओं को आहार व गति प्रदान करना होता है।

प्रोस्टेट-कैंसर आरम्भ में इसी ग्रन्थि तक सीमित रहता है ,किन्तु बाद में आसपास के व दूर के अंगों में फैल भी सकता है। उम्र बढ़ने के साथ इसकी आशंका बढ़ती है। मोटापे से भी इसका सम्बन्ध पाया गया है और कई बार आनुवंशिकी( जेनेटिक्स ) के कारण एक ही परिवार के कई पुरुषों में यह हो सकता है।

पेशाब की धार का पतला होना अथवा पेशाब करने में असमर्थता इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। वीर्य में खून आना , शिश्न के स्तम्भन में समस्या , कमर के नीचे के इलाक़े में अथवा हड्डियों में दर्द भी कई बार देखने को मिल सकता है।

यद्यपि यह रोग किसी भी पुरुष में हो सकता है , लेकिन कुछ क़दम हम इससे बचने के लिए उठा सकते हैं। ताज़े फलों-सब्ज़ियों का सेवन , खाद्य-सप्लीमेंटों से दूर रहना , कसरत करना व वज़न नियन्त्रित रखना एवं कोई भी ऊपर बताये गये लक्षणों के होने पर डॉक्टर से मिलना ही इस रोग के विरोध में समय रहते उठाये गये उचित क़दम हैं।

डॉक्टर इस रोग की पुष्टि के लिए कई जाँचें करते हैं। उँगली को मलद्वार के रास्ते प्रवेश करके प्रोस्टेट को महसूस करना ( डिजिटल रेक्टल एग्ज़ामिनेशन ) इनमें महत्त्वपूर्ण है। फिर प्रोस्टेट स्पेसिफ़िक एंटीजन नामक जाँच भी ख़ून में करायी जाती है। आवश्यकतानुसार प्रोस्टेट की अल्ट्रासोनोग्राफ़ी एवं बायॉप्सी भी की जाती हैं। इन सब के बाद पुष्टि होने पर प्रोस्टेट-कैंसर का उपचार डॉक्टर आरम्भ करते हैं।

डॉ विवेकश्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन 7704996699

Sunday, June 2, 2019

कहीँ आप भी तो नहीं ले रहे एसिडिटी की दवा?

एसिडिटी की दवाओं का लम्बा सेवन आँतों को कर सकता है बीमार 

जब से एसिडिटी (अम्लीयता ) की प्रोटॉन-पम्प-इन्हिबिटर दवाओं ( ओमीप्रैज़ॉल-पैंटोप्रैज़ॉल वग़ैरह ) का चलन बढ़ा है , तब से मेडिकल जगत् का ध्यान इनके कारण पैदा होने वाली कई समस्याओं पर गया है। इन्हीं में से एक समस्या छोटी आँत में जीवाणुओं की संख्या अत्यधिक बढ़ जाना है , जिसे स्मॉल इंटेस्टाइनल बैक्टीरियल ओवरग्रोथ ( एसआईबीओ --- सीबो ) कहा गया है।

पाचन तन्त्र में जीवाणुओं की सर्वाधिक उपस्थिति बड़ी आँत और फिर मुँह में होती है। इन दोनों सिरों के बीच में पड़ने वाले आमाशय व छोटी आँत में जीवाणु कम होते हैं। कारण कई हैं। आमाशय में मौजूद अम्ल इन जीवाणुओं में से अधिकांश को मार देता है। इसी कारण मुँह से हम-आप जो कुछ भी खाते हैं , उसमें मौजूद अधिकतर जीवाणु आमाशय को पार ही नहीं कर पाते और वहीं नष्ट हो जाते हैं। इस कारण से छोटी आँत में जीवाणुओं की संख्या काफ़ी कम होती है।

लेकिन क्या हो अगर आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल कम बनने लगे ?
या दवाएँ खाकर हम उसका उत्पादन कम कर दें ?
या हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र कमज़ोर हो जाए ?
या आँतों की मांसपेशीय चाल ( फैलना-सिकुड़ना ) कम पड़ने लगे ?
या छोटी आँत और बड़ी आँत जहाँ मिलते हैं , उस स्थान से जीवाणु किसी कारणवश बड़ी आँत से छोटी आँत में आकर बसने लगें ?
तब क्या होगा ?
इन घटनाओं के कारण छोटी आँत में बढ़ी जीवाणुओं की आबादी हमारे पाचन पर क्या प्रभाव डालेगी ?

ग़ौरतलब बात यह है कि छोटी आँत में आवश्यकता से अधिक बढ़े जीवाणु पाचन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। नतीजन व्यक्ति में तरह-तरह के लक्षण पैदा होंगे। पेट फूलना , डकार आना , मलद्वार से अधिक हवा निकलना , पेटदर्द , दस्त व वज़न में गिरावट सभी देखे जा सकते हैं। ध्यान रहे , यद्यपि ये लक्षण केवल छोटी आँत में जीवाणुओं के बढ़ने से ही नहीं पैदा होते , लेकिन जीवाणुओं की बढ़ी हुई आबादी इन लक्षणों को किसी व्यक्ति में पैदा कर सकती है यह जानना ज़रूरी है। जीवाणुओं की इस बढ़ी हुई संख्या के कारण भोजन न ठीक से पचता है और न अवशोषित होता है। शरीर में खनिजों व विटामिनों की कमी होने लगती है। एंटीबायटिकों के समुचित प्रयोग एवं भोजन में पोषक-तत्त्व देकर गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजिस्ट मरीज़ों की इस बीमारी को ठीक करते हैं। साथ ही इस बात पर भी काम किया जाता है कि किस कारण से छोटी आँत में जीवाणुओं की आबादी बढ़ी। यदि सम्भव हुआ , तो उस मूल रोग का भी उपचार किया जाता है।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा
हेल्पलाइन - 7704996699