Friday, June 7, 2019

विटामिन बी 12 और फ़ोलिक अम्ल ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे !

2016 में भारत-सरकार ने भोजन में प्रयुक्त होने वाले अनाज ( विशेष रूप से गेहूँ ) के विटामिनों और खनिजों से संवर्धन के लिए मानक ड्राफ़्टों का प्रकाशन किया। यूनिसेफ़ और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएँ दशकों से इस बात पर बल दे रही हैं कि कुपोषण से निपटने के लिए बहुतायत में इस्तेमाल होने वाली खाद्य-वस्तुओं को सरकारें पहल करते हुए विटामिन-खनिज-पदार्थों से संवर्धित करे।

आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा रोग से बारे में बहुत से लोग परिचित हैं। लेकिन आयोडीन की ही तरह भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या में लोहे , जस्ते , विटामिन ए , डी और फ़ोलिक अम्ल की कमियाँ भी ख़ूब देखने को मिलती हैं।

बचपन में डालडा का पीला डिब्बा सबको याद होगा , जो विटामिन ए और डी से संवर्धित रहा करता था। आज-कल बिक रहे तमाम तेलों में से किसी में भी ये तत्त्व शामिल नहीं रहते। इस विषय में फ़ूड स्टैंडर्ड्स सेफ़्टी अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया व खाद्य-तेल-उद्योग के बीच मतभेद रहे हैं। तेल-उद्योग का कहना है कि भारतीयों की चूँकि आदत तेल को पका कर इस्तेमाल करने की है , इसलिए उसमें विटामिन ए और डी का संवर्धन बेकार है। पकाने-खौलाने से वे नष्ट हो जाएँगे और किसी का भला नहीं होगा। उलटे संवर्धन के लिए जनता को अपनी जेब थोड़ी और ढीली करनी पड़ेगी।

भोज्य-पदार्थों के संवर्धन पर चर्चा फिर कभी होगी। आज बात उस तत्त्व की , जो लोहे और आयोडीन से कम आवश्यक नहीं और उसके संवर्धन के बारे में भी विचार किया जा रहा है। पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के बाद उस तत्त्व को जानना और भी आवश्यक हो जाता है। उसका नाम फ़ोलिक अम्ल या फ़ोलेट है। विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स का सदस्य होने के कारण इसे विटामिन बी 9 के नाम से भी जाना जाता है। शस्य के साथ श्यामल को इस्तेमाल भारतीय जन सहज ही कर लेते हैं।

'शस्य-श्यामलाम्' विशेषण बंकिमचन्द्र से लेकर आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आपको जगह-जगह मिलता है। 'शस्य' जहाँ नवपरिवर्धित धान्य-इत्यादि के लिए प्रयुक्त होता है , वहीं 'श्यामलता' कालेपन की परिचायक है। और यहाँ यह बात मन में बैठा लेनी ज़रूरी है बिना श्यामलता के शस्यता का कोई महत्त्व नहीं।

गहरे रंग की ये साग-सब्ज़ियाँ फ़ोलिक अम्ल का एक प्रचुर स्रोत हैं। ( 'फ़ोलेट' शब्द ही लैटिन के 'फ़ोलियम' से बना है , जिसका अर्थ पत्ती होता है। ) इसके अलावा मांसाहार , दूध व दुग्ध-उत्पाद , फल व समुद्री भोजन में भी उसकी समुचित मात्रा पायी जाती है। यहाँ साथ में ध्यान देने वाली बात यह भी है सब्ज़ियों और अन्य आहारों को गरम करने व पकाने से फ़ोलिक अम्ल की बहुत बड़ी मात्रा नष्ट हो जाती है।

पिछली कड़ियों में बी 12 की चर्चा के समय आपको मेगैलोब्लास्टिक अनीमिया याद होगा। रक्त कोशिकाओं के सम्यक् विकास के लिए फ़ोलिक अम्ल बी 12 के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर काम करता है। दोनों में से एक की भी कमी रक्त-निर्माण में बाधक है। नतीजन रोगियों को थकान , कमज़ोरी , कार्य-अक्षमता -जैसे लक्षणों से सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा फ़ोलिक अम्ल का एक विशिष्ट काम माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण के तन्त्रिका-तन्त्र को विकसित करना भी है। ऐसे में गर्भिणी के शरीर में इस विटामिन की कमी बड़े विकार पैदा कर सकती है , जिन्हें न्यूरल-ट्यूब-विकृतियों के नाम से जाना जाता है। तमाम अन्य बीमारियों में फ़ोलिक अम्ल पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। ख़ून के नमूनों में लाल रक्त कोशिकाओं के भीतर मौजूद इस विटामिन की मात्रा से डॉक्टर आपके शरीर में इसका स्तर का ज्ञान पाते हैं। ( यहाँ यह ध्यान दीजिएगा कि अन्य तत्त्वों की जानकारी ख़ून के तरल भाग में सीधे उनकी मात्रा से होती है , जबकि फ़ोलिक अम्ल को ख़ून की एक कोशिका-विशेष के भीतर नापा जाता है। )

'शोले' फ़िल्म में आपको वीरू और जयदेव की जोड़ी याद होगी। अगर बी 12 वीरू है , तो फ़ोलिक अम्ल जयदेव। वह बी 12 से अधिक ताप-संवेदनशील है और मन से अधिक हरा-भरा भी। मौसी की लड़की से अपने मित्र की बात करते समय वह उसकी कमियाँ ढाँपता है। फ़ोलिक अम्ल का प्रचुर सेवन करने से भी कई बार वयस्क-शरीर में विटामिन बी 12 की अल्पता छिप जाती है और पकड़ में नहीं आती। कैसे होता यह , इसे समझिए।

मान लीजिए कि किसी वयस्क के शरीर में इन दोनों विटामिनों बी 12 व फ़ोलिक अम्ल की कमी है , जिसके कारण उसके रक्त अल्प है और तन्त्रिका-तन्त्र में समस्याएँ हैं। ऐसे में अगर रोगी केवल फ़ोलिक अम्ल ( बाहर से ) भोजन या गोलियों के रूप में ले , तो उसके ख़ून की बड़ी-बड़ी मेगैलोब्लास्ट कोशिकाएँ तो सामान्य आकार की हो जाएँगी , लेकिन तन्त्रिका-तन्त्र की दिक़्क़तें जस-की-तस बनी रहेंगी। ऐसे में सामने वाले चिकित्सक को यह लगेगा कि जब ख़ून की कोशिकाएँ सामान्य आकार-आकृति की हैं और केवल तन्त्रिका-तन्त्र की समस्या है तो शायद यह किसी अन्य कारण से है। इस तरह विटामिन बी 12 की कमी पर से उनका ध्यान हटने की आशंका रहेगी। 

केवल ख़ून की कोशिकाओं के आकार से डॉक्टर ( पैथोलॉजिस्ट ) को धोखा हो जाएगा ! जहाँ जन्तु-उत्पादों के सेवन से बी 12 की प्राप्ति होती है , वहीं हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ व फल-इत्यादि के सेवन से फ़ोलिक अम्ल की पूर्ति होती रहती है। इन दोनों विटामिनों के महत्त्व को विलग करके नहीं देखा जा सकता। संग-संग इन्हें लेने से ही आम जन का समुचित रक्त व तन्त्रिका-विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।

डॉ विवेक श्रीवास्तव
जीवक आयुर्वेदा 
हेल्पलाइन: 7704996699

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