Monday, May 14, 2018

पुरुष, पौरुष और पुरुषत्व के बीच स्वस्थ जीवन जीने की कला (भाग :१ )

"धात की बात न उठाना बन्धु , क्योंकि वह तो सभी स्वस्थ पुरुषों के बनती है और बनती रहेगी।"

 लड़का अठारह साल का है और उसकी बुद्धि उसके गुप्तांग की जड़िता-बन्दिनी है। उसके सामने प्रेमभरे जीवन की आशाएँ हैं , अरमान हैं , उम्मीदें हैं। हर आशा-उम्मीद-अरमान के मूल में सर्जना है। हर सर्जना के केन्द्र में उसका पुंसत्व है। और पुंसत्व के मूल में उसका गुप्तांग। इसलिए वह मेरे पास वीर्य और गुप्तांग की समस्या को लेकर खुल रहा है। मैं वीर्य और गुप्तांगों का कोई विशेषज्ञ नहीं , जीवक आयुर्वेदा का डायरेक्टर हूँ। लेकिन जिस तरह से 'ऑल रोड्स लीड टु रोम' वाली कहावत चलती है , उसी तरह 'ऑल एल्मेंट्स लीड टु द जेनाइटल्स' वाली बात भी सच साबित होती है। और फिर भारत का रोगी संस्कारों में आहार-विहार की बातें सुनता आया है। उसे कोई बीमारी हो जाए , उसकी शंका अन्ततः इन्हीं दो विन्दुओं पर जा कर ठहरती है --- 'खाने में कोई परहेज़ ?' और 'धात गिरती है'। अतः हर ओ.पी.डी. में खानपान के सैकड़ों सवाल उठाये जाते हैं। हर डॉक्टर को कई बार गोपन गुप्तांग-गाथा सुननी ही पड़ती है।

पहली बात सपाट प्रश्न के रूप में प्रस्तुत की जाती है , तो दूसरी अपराधबोध से ग्रस्त स्वीकृति के साथ सामने लायी जाती है। लड़के को लगता है कि उसका शिश्न टेढ़ा है। उसे यह भी बोध हो रहा है कि उसका वीर्य पतला हो रहा है। उसे यह भी चिन्ता सता रही है कि वह हस्तमैथुन से लत से मुक्त नहीं हो पा रहा। अब वह गर्लफ़्रेंड कैसे बनाएगा ? अब शादी किस तरह हो सकेगी ? और फिर बच्चे ? लड़के से मैं कहता हूँ कि शिश्न और वीर्य परस्पर उतने सम्बद्ध नहीं है , जितना वह सोचता है। शिश्न एक पुरुष-अंग हैं , पेशाब और वीर्य को निःसृत करने का। वीर्य का काम स्त्री के अण्ड से मिलकर नये भ्रूण का निर्माण करना होता है। शिश्नहीन जन्तु भी है सृष्टि में , वीर्य उनके भी बनता है।

उन जातियों के पुरुष अपने गुप्तांग को स्त्री-शरीर में प्रविष्ट नहीं कराते , वीर्य-अण्ड का मिलन उनके यहाँ बाहर खुले में हुआ करता है। मेढक इस तरह के यौन-सम्बन्ध का सबसे बड़ा उदाहरण है। मैं उसे आगे समझाता हूँ कि शिश्न पुरुष की यौन-क्रीड़ा की जीभ है। इससे वह सेक्स-सुख की प्राप्ति कर पाता है। जिस तरह मानव की जिह्वा तमाम रसों को अपनी तन्त्रिकाओं द्वारा अनुभूत करके मस्तिष्क तक उन्हें पहुँचाती है और उनका भोग पाती है , उसी तरह यह काम शिश्न करता है। उसके अग्रिम सिरे पर , जिसे शिश्न-मुण्ड कहा जाता है , तमाम तन्त्रिकाएँ यौन-उत्तेजना को महसूस करती हैं। जिह्वा और शिश्न मात्र अनुभूतियों को बटोरने का स्थान हैं , शेष सारा काम खोपड़ी के भीतर बैठा दिमाग़ करता है। फिर मैं उससे कहता हूँ कि शिश्न की लम्बाई को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे दिया गया है।

 वीर्य-विक्षेपण और यौन-सुख , दोनों के लिए अतिशय लम्बा पुरुष-गुप्तांग कोई गारण्टी नहीं है। स्त्री योनि-मुखांग पर वीर्य-आलेप भर से भी गर्भवती हो सकती है , कई बार सालों-साल पूर्ण प्रयास के बाद भी लोग माँ-बाप नहीं बन पाते। सेक्स का सुख मात्र गुप्तांग-प्रविष्टि पर ही नहीं अवलम्बित है , अन्य अनेक कारणों पर भी उसकी अतिशय निर्भरता है। सच तो यह है कि इस उम्र में सन्तान-वन्तान कैसे करते हैं , की उसे न तो कोई जिज्ञासा है और न जानकारी। उसका ध्यान क्रीड़ा की सफलता पर अधिक टिका है। कहीं ऐसा न हो , कि वह चूक जाए और उसकी प्रेयसी-पार्टनर उसे कच्चा समझ कर तिरस्कार-सहित त्याग दे।

लड़के ने सुना है कि वीर्य अस्थि-मज्जा में बनता है। मैंने उसे बताता हूँ कि अस्थि-मज्जा में मात्र रक्त बनता है। वीर्य का मज्जा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। पुराने लोगों ने मर्दानगी को क़ीमती माना होगा , इसलिए वीरता से वीर्य का सम्बन्ध जोड़ लिया। और फिर नन्हीं-नहीं सफ़ेद बूँदों की कथा को खींचते-खींचते मज्जा तक ले गये। मैं उससे कहता हूँ परम कायर के भी सैकड़ों पुत्र को सकते हैं , परम वीर भी निरबंसिया हो सकता है। परम कातर भी कामक्रीड़ा-पटु-प्रवीण होकर दसियों-सहस्रों स्त्रियों को तुष्ट कर सकता है और अतिशय प्रतापी भी केलिक्रीड़ा-भूमि का भगोड़ा साबित हो सकता है। लड़के को मैंने बता दिया है कि सेक्स एक ऑर्केस्ट्रा-प्रस्तुति है , वह भ्रमवश उसे अकेला रियाज़ समझ रहा है। और फिर वीर्य ? उसके निर्माण का सेक्स से कोई सम्बन्ध नहीं है। वीर्य नित्य बना करता है पुरुष-वृषणों में , जो चमड़ी के कोषों में नीचे झूला करते हैं। ऐसा इसलिए कि उनके शुक्राणुओं के निर्माण के लिए एक डिग्री कम तापमान की आवश्यकता होती है। इसलिए पुरुष अपने वृषण शरीर के भीतर नहीं रखता , उन्हें बाहर कोषों में स्थान देता है। लड़का यही नहीं जानता था कि वीर्य और शुक्राणुओं में क्या भेद है। मैं उसे बताता हूँ कि वीर्य में शुक्राणु होते हैं , मगर उसमें और भी बहुत कुछ होता है। तमाम रसायन , अनेक पदार्थ। फिर वीर्य कोई पतला-वतला नहीं होता। वह कोई देसी-जरसी गाय का दूध थोड़े ही है ! पुरुष की सन्तानोत्पत्ति-क्षमता वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या तय करती है , उन्ही गतिमत्ता बताती है , उनका स्वरूप तय करता है। जिसके वीर्य में जितने स्वस्थ-एथलेटिक-सुरूप शुक्राणु , वह सन्तान जनने के हिसाब से उतना श्रेष्ठ मर्द !

लेकिन शिश्न के आकार और सेक्स-क्रीड़ा से इस मर्दानगी का कोई लिंक नहीं। सेक्स एक ऑर्केस्ट्रा-प्रस्तुति है , तो शिश्न एक वाद्य-यन्त्र जिसका प्रयोग एक कला है। और यौनसुख और सन्तान-सुख उससे उपजने वाली लघुकालीन और दीर्घकालीन आनन्दप्रदायी उपलब्धियाँ। बहुत अच्छे यन्त्रों वाला बहुत अच्छा ऑर्केस्ट्रा भी कोई आनन्द न दे सके , ऐसा सम्भव है। यह भी हो सकता है कि लघुकालिक सुख देने वाला दीर्घकालिक सुख न दे पाये और दीर्घकालिक सुख देने वाला सदैव अपनी प्रेयसी-पत्नी को लघुकालिक सुख से वंचित रखे। लड़के को आज ज्ञान मिला है कि वीर्य कोई धातु नहीं जिसे सोना-चान्दी की तरह सँभाल कर तिजोरी में ताला मारकर रखा जाए। वह बनता रहता है , बनता रहेगा। तुम प्रयोग करोगे , तो निकलेगा। नहीं करोगे , तो भी समय-समय पर शरीर उसे पेशाब के रास्ते उत्सर्जित कर देगा। बहुत से शुक्राणु भीतर-भीतर ही नष्ट हो जाएँगे। शरीर उनकी सामग्री से नये शुक्राणुओं का निर्माण कर लेगा। लड़के को चाहिए कि वह हस्तमैथुन के अपराध-बोध से बाहर निकले। यौवन आया है , तो मैथुन की अपेक्षा है। यह स्वाभाविक है। उत्तेजना की आत्मतुष्टि कोई अपराध नहीं। न उससे कोई नैतिक-शारीरिक-मानसिक हानि होती है। जो इस प्रकार से से तुष्ट नहीं होते , उनके लिए सीधे सुलभ स्त्री-सहवास का मार्ग है। देह में उठते नैसर्गिक यौन-ज्वार के शमन का और कोई मार्ग नहीं। बुरी मात्र यौन-कुण्ठाएँ हैं। बुरा मात्र स्वीकृति के बिना भी स्त्री को भोग्या मान लेना है। गर्हित मात्र बलात्कार है।


अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्पलाइन नंबर 7704996699 पर कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com

भाग २ और भाग ३ भी पढ़ें 

No comments:

Post a Comment